मिनियापोलिस के पुलिस अधिकारी डेरेक चौविन द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की कुख्यात हत्या से नस्ली भेदभाव का भूत एक फिर जिन्दा हो उठा है। अमेरिका में हज़ारों लोग हुए इस घृणित हत्या के विरुद्ध सडकों पर हैं और भारत सहित दुनिया के तमाम दुनिया के तमाम मुल्कों के लोगों की उन पर नज़र है । जातीय एवं धार्मिक भेदभाव भारतीय सामाजिक-राजनीतिक जीवन का एक गहरा हिस्सा है, और आज यह स्वाभाविक है कि हिंदुस्तान में #BlackLivesMatters के साथ साथ सोशल मीडिया पर #DalitLivesMatters, #MuslimsLivesMatters भी वायरल हो रहा है।
नस्ली हिंसा के खिलाफ उठ खड़े हुए इस आंदोलन ने अमेरिका में एक दिलचस्प मोड़ तब ले लिया, जब वाशिंगटन डीसी में प्रदर्शनकारियों ने भारतीय दूतावास में महात्मा गांधी की प्रतिमा पर हमला कर दिया। अमेरिकी पुलिस ने जहाँ इसकी जाँच शुरू कर दी है, वही भारत में अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने इसकी कड़ी निंदा करते हुए कहा कि “वह भयावह हिंसा और बर्बरता से बहुत निराश है।” इस घटना ने नस्लीय भेदभाव पर महात्मा गाँधी के विचारों पर बहस को पुनर्जन्म दे दिया है।
इस बहस की शुरुवात 2015 में आश्विन देसाई और गुलाम वाहिद की किताब The South African Gandhi: Stretcher-Bearer of Empire के साथ हुई। यह पुस्तक दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान महात्मा गांधी के जीवन पर रौशनी डालती है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान गाँधी जी हमेशा ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादार रहे और मूल निवासी काले लोगों द्वारा किये जा रहे विद्रोह को कुचलने में ब्रिटिश सरकार की मदद की। अप्रैल 2015 में इस पुस्तक के प्रकाशित होने के बाद जोहान्सबर्ग में प्रतिक्रिया देखने को मिली जब “Racist Gandhi must fall” के प्लेकार्ड्स लहराए गए और प्रतिमा पर सफेद पेंट भी फेंका गया। लेखकों, पत्रकारों और पोलिटिकल एक्टिविस्टों का एक उत्साही झुंड अखबारों में और टीवी स्क्रीन पर ढोल-नगाड़े बजाते हुए यूरेका मोमेंट के साथ दिखाई दिया। महात्मा गाँधी के विरुद्ध अपशब्दों की जो सिलसिला अप्रैल 2015 में शुरू हुआ था उसमे वाशिंगटन की घटना एक नयी कड़ी है।
क्या यह यूरेका मोमेंट है?
देसाई और वाहिद की किताब में बेहद ही सतही तथ्यों को दर्ज किया था और उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले थे वे कोई नई खोज नहीं हैं। गाँधी को गंभीरता से पढ़ने वाले लोग इन तथ्यों से पहले से ही वाक़िफ़ थे। उदहारण के तौर पर बोअर युद्ध को ही लिया जाय तो गांधी ने अपनी आत्मकथाद स्टोरी ऑफ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथमें स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है:
जब युद्ध की घोषणा की गई थी, तो मेरी व्यक्तिगत सहानुभूति सभी बोअर्स के साथ थी, लेकिन ये मेरा विश्वास था कि ऐसे मामलों में मेरे व्यक्तिगत प्रतिबद्धता को लागू करने का मुझे कोई अधिकार नहीं …निश्चित ही ब्रिटिश शासन के प्रति मेरी निष्ठा ने मुझे उस युद्ध में ब्रिटिशों के साथ भागीदारी करने के लिए प्रेरित किय। ऐसा मेरा मानना था की अगर मैंने ब्रिटिश नागरिक के रूप में अधिकारों की मांग कर रहा हु , तो ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा में भाग लेना नैतिक कर्तव्य भी था। मेरा विश्वास था कि भारत केवल ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर और उसके माध्यम से अपनी पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इसलिए मैंने अधिक से अधिक साथियों को एक साथ एकत्र किया, और बहुत ही कठिनाई के साथ एम्बुलेंस कोर के रूप अपनी सेवा दी।
[अध्याय 10, पार्ट 3, माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ ]
इसी किताब के भाग 2 अध्याय 6 में गांधी ने स्वीकार किया है –
ऐसा नहीं है कि मैं ब्रिटिश शासन के दोषों से अनभिज्ञ था बावजूद इसके मेरा विश्वास था कि ब्रिटिश शासन में ही विश्व का कल्याण संभव है। गाँधी जी ने इस पर Satyagrah in South Africa में इस पर एक विस्तृत अध्याय लिखा है। बोअर डच थे न कि ब्लैक, लेकिन गांधी ने उनके खिलाफ अंग्रेजों के साथ एक निष्ठा की भावना से युद्ध में भाग लिया, जिसे उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्पष्ट रूप से उद्घृत किया है।
इसी प्रकार ज़ुलु विद्रोह को दर्ज़ करते समय गाँधी जी लिखते है – “जुलु लोगों के खिलाफ मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं है, उन्होंने किसी भारतीय को नुकसान नहीं पहुँचाया बावजूद इसके मुझे विश्वास है कि ब्रिटिश साम्राज्य विश्व कल्याण के लिए है। निष्ठा की भावना ने मुझे ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध किसी भी दुर्भावना की तरफ जाने से रोका । इस सच्चाई की वजह से विद्रोह का साथ देने की निर्णय करने की संभावना नहीं थी।
गाँधी जी इस अध्याय को इन शब्दों के साथ समाप्त करते है – “एक दिन में दो या तीन बार चालीस मील तक हमें अपने कंधों पर स्ट्रेचर लाद कर पैदल चलना पड़ता था। लेकिन हमने जो भी किया उसके लिए मै बहुत आभारी हूँ क्योकि वह ईश्वरीय कार्य था। बुरी तरह घायल जुलु लोगों को अपने स्ट्रचेर पर लाद कर हम अपने कैंप लाते थे जहाँ उनकी चिकित्सा की जाती थी।” गोलमेज सम्मलेन में गए गाँधी की होस्ट रहीं मुरियल लिस्टर के 1932 में प्रकाशित संस्मरण Entertaining Gandhi में भी उन्होंने दर्ज किया है कि गाँधी ने एक स्विस सामाजिक कार्यकर्ता पियरे के समक्ष इस बात को बिना लाग-लपेट स्वीकार किया था. गाँधी का यह वक्तव्य उनकी उस पूरी यात्रा को चिह्नित करता है जिसके एक हिस्से को उद्धरित कर उन्हें ‘साम्राज्य का स्ट्रेचर बियरर’ साबित करने की कोशिशें इस दौर में हो रही हैं, वह कहते हैं –
मैं 1914 में ऐसा नहीं सोचता था. तब मैं एक निष्कलंक नागरिक बनना चाहता था. इसलिए मैंने खुद को पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के हवाले कर दिया. मुझे लगता था कि वे मेरे देश को अत्याचार से बचा रहे हैं. इसलिए मुझे लगा कि मुझे उनकी वैसे ही पूरे दिल से सहायता करनी चाहिए जैसे कोई ब्रिटिश करता है. मुझे रेड क्रॉस का काम करने को कहा गया. मैंने कहा ये शानदार है क्योंकि मैं किसी की हत्या नहीं करना चाहता था. लेकिन मैंने अपने दिल को किसी भरम में नहीं रखा. मैं खुद को भरमा नहीं सकता था कि रेड क्रॉस का काम हत्या से कम है. युद्ध में इसकी भी वही भूमिका है. यह सैनिकों को दूसरों की हत्या करने के लिए तैयार करता है. अगर उन्होंने मुझे बन्दूक दी होती तो उनके प्रशिक्षण के बाद मैं उसे निश्चित रूप से चलाता भी, यह मुमकिन है कि ऐसा करते मुझे लकवा मार जाता.
मैं सोचता था कि युद्ध के समय पूरे दिल से सेवा करना मेरे देश की मुक्ति के लिए सहायक होगा. इसके पहले जब मैं दक्षिण अफ्रीका में था, ज़ुलु विद्रोह फूट पड़ा. मेरी सहानुभूति ज़ुलु लोगों के साथ थी. मुझे उनकी सहायता करके अच्छा लगा होता, लेकिन तब मेरे पास उनके लिए कुछ कर पाने का प्राधिकार नहीं था. मैं इतना ताक़तवर, अनुभवी या अनुशासित नहीं था. मैंने सोचा मैं ब्रिटिश सरकारी व्यवस्था के साथ खड़ा होऊंगा ; तब व्यवस्था के भीतर के एक आदमी की तरह मैं जो ग़लत हो रहा है उसे सही करने में सहायता कर पाऊंगा. मैंने खुद को सरकार के हवाले कर दिया और मुझे स्ट्रेचर उठाने का काम दिया गया. यह मेरे लिए बहुत अच्छा था. चीफ मेडिकल अधिकारी मानवीय था और जब मैंने कहा कि मैं दूसरों के बजाय घायल ज़ुलु लोगों की सेवा करना चाहूँगा तो उसने आह भरी – यह मेरी प्रार्थनाओं का नतीजा है. आप देखिये कि ज़ुलु बंदियों को कोड़ों से पीटा जाता था और उनके घावों की कोई और सेवा नहीं करना चाहता था तो मैंने दिन-रात उनकी सेवा की. उन्हें जेलों में रखा जाता था और औपनिवेशिक सैनिक हमें सेवा करते हुए बाहर से देखकर चिढाते थे. वे चिल्लाते थे –तुम इन्हें मरने क्यों नहीं देते? विद्रोही! निग्गर! जिस तरह से उस विद्रोह को दबाया गया वह भयानक था. सैनिक निहत्थे लोगों पर हमला करते थे. इससे मुझे शिक्षा लेनी चाहिए थे लेकिन आप देखिये मैं ब्रिटिश सत्ता व्यवस्था के भीतर बना रहा. मैंने राज्य के भीतर रहकर अपने आदर्शों को लागू करने की कोशिश की लेकिन यह सही नहीं था. मैंने अपने इस प्रयास से बहुत कुछ सीखा लेकिन दक्षिण अफ्रीका राज्य के भीतर रहकर भी ज़ुलु लोगों की कोई सहायता कर पाने में सक्षम नहीं हुआ. और प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान साम्राज्य की सेवा करने के बावजूद अंत में मैं अपने देश को स्वाधीन कराने में सक्षम नहीं महसूस करता. इसलिए अब मैं राज्य के साथ और सहयोग नहीं कर सकता.
देसाई और वाहिद ने एक अपमानजनक टिप्पणी के तौर पर “stretcher-bearer” उठा लिया, जिससे किताब का शीर्षक सनसनीखेज हो गया।
लेकिन क्या हमें साम्राज्य के प्रति गांधी की वफादारी साबित करने के लिए वास्तव में किसी शोध की आवश्यकता थी?
नीग्रो (जैसा की उस समय प्रचलित था) लोगों के प्रति गाँधी के भाव भी कोई राज़ नहीं है,सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका के अध्याय 20 में गाँधी दर्ज करते हैं – “हमे अभ्यास के तौर पर कुछ ड्रिल करने को कहा गया, लेकिन हमने महसूस किया की कठिन परिश्रम करने के बाद भी नीग्रो लोगों तक से इस तरह के ड्रिल कराये जा रहे थे ” 1926 में प्रकाशित इस किताब में ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे जिनसे पता चलता है कि अफ्रीका में रहते हुए गाँधी अफ्रीकी लोगों के प्रति असमानता का भाव रखते थे। इस किताब में भारतीय एवं यूरोपीय नामों की भरमार है लेकिन शायद ही उन्होंने किसी मूल निवासी काले लोगों के नाम का उपयोग किया हो।
ब्रिटिश काले लोगों और भारतीयों को एक ही श्रेणी में रखते थे और दोनों के साथ सामान व्यवहार करते थे। साउथ अफ्रीका में भारतीयों के नेता के तौर पर गाँधी गोरे लोगों से समानता के लिए संघर्ष नहीं कर रहे थे बल्कि मूल निवासियों के मुकाबले बेहतर सम्मानजनक स्थिति की मांग कर रहे था। गाँधी जी का पहला सत्याग्रह उस काले क़ानून के खिलाफ था जिसमें भारतीयों को अंगूठे का निशान देना पड़ता था और सार्वजनिक स्थलों पर आइडेंटिटी कार्ड धारण करना अनिवार्य था। दरअसल गाँधी जी मूल निवासी लोगों के मुक़ाबले एक सम्मानजनक परिस्थिति के लिए संघर्ष कर रहे थे, जिसके लिए वह साम्राज्य के प्रति अपनी वफ़ादारी का प्रदर्शन कर रहे थे और बदले में एक वफ़ादार नागरिक के रूप में अधिकारों की मांग कर रहे थे।
न तो गांधी और न ही उनके जीवनीकारों रॉबर्ट पेन और लुइस फिशर ने कभी इन तथ्यों को छिपाने की कोशिश की:
अपने विरोधियों के विपरीत, गाँधी निजी दोषों को स्वीकार करने और उसके अनुसार मुद्दों पर अपनी रणनीति को परिवर्तित करने के लिए पर्याप्त साहसी और ईमानदार थे। वह एक जन्मजात जीनियस नहीं थे और न ही उन्होंने कभी दावा किया। रॉबर्ट पेन का मानना था कि गांधी बहुत अध्ययनशील नहीं थे और इसे उन्होंने किसी अपमानजनक रूप से दर्ज नहीं किया है। गांधी एक ऐसे नेता थे जिन्होंने अपने जीवन को ट्रायल एंड एरर से ढाला था। गाँधी जी अपने जीवन में प्रयोगो से कभी थके नहीं और जो गलतियाँ की उससे कभी डरे भी नही। उन्होंने अपने निजी एवं राजनैतिक जीवन में “प्रयोग” शब्द का इस्तेमाल बहुत प्रमुखता से किया। गाँधी ने किताबों से ज्यादा जीवन से सीखा और किताबो में वर्णित आदर्शों से अधिक अपने प्रयोगों के साथ जीवन को जिया। उनका जीवन ही सत्य के खोज की अनवरत यात्रा था।
एक पतनशील सामंती परिवार में जन्मे, स्कूल और कॉलेज में एक औसत छात्र, राजकोट में अदालतों में एक असफल वकील मोहन दास करमचंद गाँधी के लिए दक्षिण अफ्रीका जैसे ईश्वर का भेजा एक अवसर था। यहाँ उनके लिए अपने करियर को फिर से शुरू करने का मौका था। अपने मुवक्किल का केस जीतने के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ फ्रॉक कोट पहना, यह गांधी ही थे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में बेहतर परिस्थितियों के लिए अपने साथ लड़ने वालों को अंग्रेजी सिखाना शुरू किया, यह गांधी ही थे जिन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में नेताओं, शिक्षकों और छात्रों को एक विदेशी भाषा (अंग्रेज़ी) के सहारे रहने के लिए कड़वा व्याख्यान दिया, और पुनः वे गाँधी ही थे जिन्होंने सम्पर्क भाषा के लिए हिंदुस्तानी की वकालत की और नोआखली दंगो के दौरान वहाँ रहते हुए बांग्ला सीखा ; जिस दिन उनकी हत्या हुई उस दिन भी उन्होंने बांग्ला का अभ्यास किया था।
पहले गांधी ने पश्चिमी फ्रॉक कोट की जगह साधारण धोती-कुर्ता अपनाया और फिर उन्होंने उस भेष भूषा को अपनाया जिसकी वजह से चर्चिल ने उन्हें व्यंग्य से “नंगा फ़क़ीर” कहा था, लेकिन गाँधी ने इसे एक सम्मानजनक पद में बदल दिया। एक बड़े परिवार में मुखिया के रूप में अपना वयस्क जीवन शुरू करने वाले गाँधी को अपने जीवन के आखिरी चरण में राष्ट्रपिता की उपाधि किसी और ने नहीं बल्कि सुभाष चंद्र बोस से मिली। ये वही गाँधी थे जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के समय भारतीयों को अंग्रेजो का साथ देने को कहा और दूसरे विश्व युद्ध के समय “करो या मरो” के मन्त्र के साथ “अंग्रेजो भारत छोड़ो” का नारा दे दिया।
लोग अक्सर भूल जाते है की गाँधी जी ने अपनी राजनैतिक जीवन की शुरुआत नस्ली-वर्चस्व के सोच से की और अंत श्वेत- वर्चस्व के सम्पूर्ण विनाश की कामना के साथ।
गाँधी जी के आलोचक जानबूझ कर या अनजाने में उनके जीवन के इन महत्वपूर्ण अध्यायों को भूल जाते है। इसे समझने के लिए लुई फिशर द्वारा संपादित The Essential Gandhi पलट लेना ही काफ़ी है.
गांधी और श्वेत वर्चस्व
अश्वेत अमेरिकियों के एक समूह ने अगस्त 1924 में गांधी को एक तार भेजा, जिसका जवाब उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिका यंग इंडिया में दिया:
उनका काम हमारी तुलना में बहुत कठिन है, लेकिन उनके बीच कुछ बहुत ही अच्छे काम करने वाले लोग है। इतिहास के कई छात्र मानते हैं कि भविष्य उनके साथ होगा, उनकी काया अच्छी है, उनके पास गौरवशाली कल्पना है, वे उतने ही सरल हैं जितने वे बहादुर है। फिनोट ने अपने वैज्ञानिक शोधों से ये साबित किया है कि उनमें कोई अंतर्निहित हीनता नहीं है , उन्हें बस अवसर की आवश्यकता है।
क्या ये शब्द किसी ऐसे व्यक्ति के हो सकते है जो किसी नस्ली भेदभाव को मानता हो या फिर अश्वेत लोगों के प्रति दुर्भावना से ग्रस्त हो? संयुक्त राज्य अमेरिका में ब्लैक अमेरिकन आंदोलन के प्रति उनकी आत्मीयता और उनके नेताओं के गाँधी जी के प्रति सम्मान का अंदाज़ा इस तथ्य से लगा सकते हैं कि 1936 में प्रसिद्ध अफ्रीकी-अमेरिकी लेखक और थिओलॉजिस्ट डॉ हॉवर्ड थुरमन ने उनसे पूछा “हम व्यक्ति और समाज को अहिंसा के कठिन व्रत के के लिए कैसे प्रशिक्षित करे? गाँधी जी ने उत्तर दिया “इसका कोई राजसी पथ नहीं है, सिवाय अपने जीवन मार्ग पर चलने के अलावा।”
यही वह राह थी जिस पर चलते गांधी जी ने जीवन के कठिन सबक खुद सीखे, इसी तरह उन्होंने समझा कि दक्षिण अफ्रीकी काले लोग भी उसी सम्मान और अधिकार के हक़दार है जैसा कि उन्होंने भारतीयों के लिए ज़रूरी समझा था।
30 जून 1946 को साप्ताहिक पत्र हरिजन में गांधी जी ने लिखा था –
गोरे लोगों की वास्तविक जिम्मेदारी काले या अश्वेत लोगों पर अक्खड़पन से हावी होना नहीं है, यह उस पाखण्ड से दूर होना है जो उन्हें खाए जा रहा है. यह वह समय है जब गोरे लोगों को सभी से समान व्यवहार करना सीखना चाहिए. श्वेत त्वचा अब कोई रहस्य नहीं है। अब यह बारम्बार सिद्ध हो चुका है कि अगर किसी व्यक्ति को समान अवसर दिया जाये तो चाहे वह किसी भी रंग या देश का हो, वह किसी भी अन्य के पूरी तरह से बराबर है।
फरवरी 1946 में पश्चिम अफ्रीका के अश्वेत सैनिकों से बात करते हुए गांधी ने दोहराया
जिस क्षण कोई ग़ुलाम यह सोच लेता है कि वह अब ग़ुलाम नहीं है , उसके पैरों की बेड़ियाँ गिर जाती हैं, और वह दूसरों के लिए पथ प्रदर्शक का काम करता है। आजादी और गुलामी एक मानसिक दशा है इसीलिए पहली बात जो आपको खुद से कहनी है वह यह है कि “मैं अब ग़ुलाम की भूमिका स्वीकार नहीं करूंगा, मैं किसी तरह के आज्ञा का पालन नहीं करूंगा लेकिन जब वे मेरे अंतरात्मा के खिलाफ होंगे तो मै उनकी अवज्ञा भी करूँगा। [हरिजन, 24 फरवरी, 1946.]
एक मनुष्य की पहचान उसकी जीवन यात्रा से होती है। मेरी पीढ़ी के कई लोगों ने मंडल विरोधी कार्यकर्ता के रूप में अपनी सामाजिक गतिविधियों की शुरुवात की। हम जिस सामाजिक-आर्थिक माहौल में पैदा हुए, उसने हमें जातिवादी, सांप्रदायिक एवं पितृसत्तातात्मक विचारधारा से परिपूर्ण बनने का प्रशिक्षण दिया। एक तथाकथित सवर्ण हिंदू के लिए स्वाभाविक रूप से अपनी क्षमताओं और विशेषाधिकार के बारे में एक स्व-दंभ पैदा होता है और एक नस्ली वर्चस्ववादी के रूप में अपने व्यक्तित्व को मूर्त रूप देता है। गाँधी भी इसके अपवाद नहीं थे, लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है वह है सीखने और अपनी ग़लतियों को सुधारने के लिए उनकी आजीवन कोशिश ।
अपने जीवन के उत्तरार्ध में गांधी नस्ली भेदभाव के ख़िलाफ़ खड़े होते है । गाँधी की सम्पूर्ण जीवन यात्रा को अनदेखा करना और कुछ चुनिंदा घटनाओं से उन्हें नस्लवादी घोषित करना या तो अज्ञान है है या फिर बौद्धिक धोखाधड़ी। लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) हो या नेल्सन मंडेला, उन्होंने सिर्फ गाँधी जी के विचारों पर आधारित आंदोलन ही नहीं चलाया बल्कि उन्हें अपनी प्रेरणा के रूप में भी स्वीकार किया ।
अंत में, मैं 17 नवंबर 1947 को आयोजित उनकी आख़िरी प्रार्थना सभाओं में से एक में की उनकी घोषणा को उद्धृत करना चाहता हूँ जिसमें वह श्वेत वर्चस्व के खिलाफ कहते हैं –
दक्षिण अफ्रीका में कई बुद्धिमान पुरुष और महिलाएँ हैं, यह दुनिया के लिए एक त्रासदी होगी यदि वे अपने अंधकारमय परिस्थियों से बेहतर हो कर नहीं निकलते, उन्हें श्वेत वर्चस्व की इस विकराल समस्या के ख़िलाफ़ देश को उचित नेतृत्व प्रदान करना ही होगा। क्या यह (श्वेत वर्चस्व)अब एक ज़रूरत से अधिक खेला गया खेल नहीं हो गया है?
उम्मीद है कि अफ़्रीकी/अमेरिकी-अफ्रीकी युवा पीढ़ी गहराई से यह समझने के लिए से कोशिश करेगी कि उनके महान नेताओं ने अपने शोषकों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरणा के रूप में गाँधी और गाँधी के सबसे महत्वपूर्ण हथियार सत्याग्रह और अहिंसा को क्यों चुना।
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लेख मूलरूप से अंग्रेज़ी में न्यूज़क्लिक में प्रकाशित हुआ था. वहाँ से साभार
© ASHOK KUMAR PANDEY /// Idea, Work & Code : AMI TESH