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अक्षत सेठ की ताज़ा कविता सीरिज़ – त्रासदी
August 22, 2020
Ashok Pandey
Asuvidha
,
Poetry
अक्षत की ये कविताएँ किसी पूर्वकथन की माँग नहीं करतीं. इन्हें सीधे पढ़ा जाना चाहिए. आँख में आँख डालकर…
त्रासदी
एक
–
कचोटना बंद कर देते हैं शब्द, बातें
सहला जाते हैं बस छुई मुई सा
बन जाते हैं नारे पर मानो पोपले मुँह के दिए
जाते हैं गर्त साफ़ करने चिंताओं की
कुंठाओं की नाली, छी!
आत्मदया रेंगते कीड़ों सी
चिपके रह जाते हैं बालों से
रूसी और सफेदी का फर्क समझने में व्यस्त
दो
–
कुछ लड़कियाँ ज़्यादा ही खरदिमाग और तुनकमिजाज़ हैं
उनमें से एक का दिमाग साफ़ करने को उसके सारे बाल छील दिए जाते हैं
अल्ल्सुबह दिसंबर सी हर दिन
वह काम पर जाती है एक ब्रेड के टुकड़े और ब्लैक कॉफ़ी प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति के सहारे
फिर जाती हैवहाँ जहाँ बिस्तर होता
“तुम्हें बुखार है ऐन”
“मैं ठीक हो जाउंगी न?”
“पता नहीं। इतना खाना ही नहीं देते कि तुम्हें सांत्वना दूँ”
“मार्गोट चली गई क्या?”
अंतराल
“आह, अच्छा है मार्गोट चली गयी”
खरदीमाग और तुनकमिजाज़
“अब नर नारी बराबर हैं मीलॉर्ड”
इसीलिए किया है कृत्य तो चुकानी होगी कीमत
“पेट में बच्चा लेकर कोई जलसे करता है? पुलिस से उलझता है?”
“रिसर्च स्कालरी का मतलब यह है कि ये लोगों को भड़काती फिरें कि तुम्हें अपने देश से बाहर निकाल दिया जाएगा?”
“ये बहुत शातिर लडकियां हैं मीलॉर्ड!”
(और खरदीमाग, तुनकमिजाज़)
वह कोर्टरूम से बाहर अपनी थीसिस का सोच रही है
आँख मूंदे
“मेरी डायरी के पन्ने छिपने की जगह पर रह गए मार्गोट?”
तीन
–
भिखारन की मेहनत रंग लायी
एक खिड़की खुली
एक कपड़ा बाहर आया
“मास्क पहन लो, वरना बीमार पड़ जाओगी”
(या किसी को कर दोगी)
गाड़ी गयी
उसने अपने शिशु की बहती नाक मास्क से पोंछ ली
चार
–
त्रासदी यह है कि शब्दों का भूगोल गड़बड़ा गया है
कोई कहाँ तो कोई कहाँ
मसलन मैंने ‘ट्रैक’ किया अपना ‘आर्डर’
मेरे कुलबुलाते पेट का किरण बिंदु
स्क्रीन पर चलती उसकी लोकेशन
अचानक रुक गया वह बिंदु
रुका रहा
जम गया, खून के थक्के सा
मैं झुंझलाया
कस्टमर केयर ने सहलाया
उसकी दिहाड़ी कटने के बारे में मैंने सोचा
फ्लाईओवर पर हुए एक्सीडेंट की खबर मैंने नहीं पढ़ी
दो दिन बाद फिर आर्डर किया
पाँच
–
त्रासदी यह है
कि वे दुर्लभ पल कितने कम हैं
जब रेशा रेशा अलग हो जाता है
दिखता है स्पष्ट कि चल रहे हैं
पर दिशा ही नहीं है
हताशा नही होती
शांति से सर पीछे को ढुलक जाता है
उत्तेजना और चाह ठंडी राख की चादर ओढ़ लेतीं हैं
और मुस्कराहट ओढ़ लेती है एक नाम-
सम्यक भाव
तब पेन की रिफिल से आंसू रिसने का सपना नहीं आता
चूँकि वे रिसते हैं
त्रासदी यह है
कि दुर्लभ ही हैं यह पल
और इन्हीं की उम्मीद में जी रहे हैं
————
जे एन यू में मास मीडिया में शोध कर रहे अक्षत छात्र राजनीति से गहरे जुड़े हैं.
संपर्क : akshatwanderer@gmail.com
Tags:
Akshat Seth
,
Poetry
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