अगर तुम अपने दर्द के बारे में मौन रहोगे तो वे तुम्हे मार डालेंगे और कहेंगे तुम्हे मज़ा आया
(ज़ोरा नील हर्स्टन, एफ्रो-अमेरिकी लेखिका)
एक थप्पड़ ही तो है! इतनी सी बात! पहली बार हुआ है। वह ग़ुस्से में था। पता है न उसकी क्या मानसिक स्थिति थी! साल भर से लगा हुआ था और आख़िर उसे किसी फिरंगी के मातहत काम करना पड़ेगा! उसने इतना इमोशनल इनवेस्टमेण्ट किया था फर्म में। वरुण ने अपनी ज़िंदगी में ख़ुद को ही केंद्र बना लिया और अमू ने भी वरुण को ही अपनी ज़िंदगी की धुरी बना लिया। क्या हुआ अच्छी डांसर नहीं बन पाई तो सबसे अच्छी हाउसवाइफ बन कर दिखाऊंगी अमू ने सोचा और किसी को कभी असहज नहीं लगा। वह अपने पति के सपनों को अपने सपने बना लेती है। वह लंदन जाने के लिए ज़रूरी प्रेज़ेंटेशन की तैयारी करता है और अमू (तापसी पन्नू)उसे पूरी सुविधाएँ देती है कि वह निश्चिंत होकर अपने करियर में वक़्त दे। वह ख़ुद नीले पर्दों के बारे में सोच कर ख़ुश है।
दुनिया की तमाम लड़कियाँ अपने सपने के लिए लड़े बिना ही उसे छोड़ देती हैं और यही सबको सहज लगता है। वे अपमान को, अपने दोयम दर्जे को स्वीकार कर लेती हैं और यही सबको सहज लगता है। जिस जिस ने अपने ख़्वाब छोड़ दिए होगे वह तो घर-परिवार से प्यार की ख़ातिर किया होगा। इसमें उन्हें दर्द नहीं हुआ होगा। यही होता है।
असहज लगता है तो अपमान को अस्वीकार करना। अपने सम्मान और ख़ुशी के लिए अड़े रहना। कितना स्टुपिड है न! एक थप्पड़ बर्दाश्त न कर पाना!
असहज है सवालों से दो-चार होना। इसलिए थप्पड़ फिल्म का ट्रेलर सबसे ज़्यादा बार रिपोर्ट किया जाने वाला ट्रेलर बना। समाज का भय झाँकता है यहाँ। हमारे अपने दागदार चेहरे दिखाई देते हैं इसके आईने में। न! पितृसत्ता को सवाल के घेरे में लाने की इजाज़त नहीं है जनाब !
आए दिन जिस सुनीता का पिटना अमू के लिए नाटक था वहीं एक थप्पड़ अमू को एहसास करा देता है वह भी उसी क्लास से आती है जिस क्लास से आने वाले को कभी भी, कहीं भी थप्पड़ मार दिया जा सकता है। यह क्लास है ‘स्त्री’और यह रियलाइज़ेशन महज़ अमू का नहीं है। बल्कि उन तमाम औरतों का है जिन्होंने घरेलू ज़िंदगी बिताते हुए अपने पति के गर्व से अपनी आँखों को भरना चाहा और फटकारों की खाइयाँ जिनके कठोर चेहरे पर उभर आई हैं भले ही कभी ज़बान पर न आई हो। उनके आँसू सूख गए।
मूवऑन करने के लिए ज़रूरी था कि वे अपने लिए अपने ही दरवाज़े बंद कर दें और यही अगली पीढी की औरत को भी सिखाएँ। जैसे अमू की सास। जैसे अमू की माँ। जैसे वे मेरी वे मित्र जिन्होंने फिल्म दो वजह से नहीं देखी-
नेत्रा, अमू की वक़ील उसके साथ होता है यही जिससे मेरी दोस्त डरती रहीं। अमू का बार-बार अपने सम्मान के लिए खड़े होना, ख़ुशी की व्याख्या करने का अमू का तरीक़ा, भले ही स्टुपिड लगे लेकिन सच्ची ख़ुशी वही है न जिसका दिखावा न करना पड़े!
सब जानते हैं कि अपमान सहकर मूवऑन नहीं कर पाने का ऑप्शन सीधा तलाक़ तक ले जाता है।
तलाक़ अगली, मेसी, डर्टी प्रक्रिया है।
शादियाँ आसान हैं। तलाक़ नहीं। चक्रव्यूह में घुसने का रहस्य जानते हैं सब निकलना अभिमन्यु की तरह घायल होना है। अगर आसान होता तो शायद आधी शादियाँ टूट जातीं।
एक रियलाइज़ेशन सुनीता का भी है। उसे ख़ुशी होती थी कि जब पति पीटता है वह उसे धक्का देकर बाहर से कुंडी बंद कर देती है। अमू के उस थप्पड़ के बाद वह सोचती है किसी दिन उसके आदमी ने भीतर से कुण्डी लगा ली तो! वह पति को निहारती है कि मैं तो तुझे ऐसे ही गाली देती हूँ, मारते तो सभी है। इस बात पर वह फिर थप्पड़ खाती है। वर्गों के पार यह ऐसी पितृसत्ता है जो सबके लिए एक है।
पिताओं ने सिखाया बेटों को कि तुम्हारा हक़ है।
माँओं ने सिखाया बेटियों को तुम ही चुप रह जाओ।
अमू की माँ का यह प्रिय डायलॉग है। लेकिन उसका सच तो यही है न! जब आप कहती हैं कि इस अपमान को भूलकर मैं आगे नहीं बढ पा रही तो कौन बिलीव करता है? घरवाले भी नहीं। वक़ील भी नहीं जो ख़ुद लगभग उसी तरह की मिसोजिनी अपने रिश्ते में झेल रही है। जिसके लिए पति कहता है कि तुम सुंदर हो सामने वाला वैसे ही केस हार गया होगा! वह वक़ील भी सोचती है ‘जस्ट अ स्लैप’ यह वजह किसी को भी अनरीज़नेबल लग सकती है। एक रियलाइज़ेशन इस वक़ील का भी है जिसे अपनी ख़ुशी का वक़्त चोरी का वक़्त कहा जाना मंज़ूर नहीं, लेकिन है तो वह चोरी का ही। क्योंकि हक़ से अपना वक़्त लेने की हिम्मत वह शादी में खो चुकी है।
एक बार भी सॉरी नहीं आता। किसी की तरफ से नहीं। सबको लगता है वरुण की मानसिक दशा अपने आप में जस्टीफिकेशन है उसके बर्ताव की और अमू को इस जस्टीफिकेशन से ज़्यादा और कुछ कहए जाने की ज़रूरत नहीं। एक डिनर्। एक तोहफा। बस।
घरों-परिवारों में यही सबसे बुरी और भयानक चीज़ है। रूटीन ख़त्म कर देता है कब इंसान को पता ही नहीं चलता। 6 बजे उठना, वही लेमन ग्रास, अदरक और एक चम्मच दूध वाली चाय बनाना, सास का शुगर चेक करना, पति को नाश्ता और टिफिन देकर भेजना। इसमें इंसान इतना मुब्तिला होता जाता है कि भूल जाता है उसका प्रिय रंग तो नीला कभी था ही नहीं।
पहली बार इस रूटीन में ख़ुद को खो चुकने का एहसास अमू को तब होता है जब पार्टी में थप्पड़ वाली रात को वह अपने कमरे में नहीं जा पाती। एक अजीब सी बेचैनी है जिसमें अचानक सब चीज़ों की जगह ग़लत लगने लगे। वह सोफा हिलाती है, मेज़ इधर से उधर करती है। यह सेटिंग बरसों से ऐसी थी? क्यों थी? वह पूरा दृश्य चुभता हुआ सा बन जाता है जब सास की नींद खुलती है और वह आकर कहती है- सुनीता को आ जाने देती। भीतर की उमड़-घुमड़ से वह एकदम अनजान है।
रूटीन इतना ख़ौफ़नाक कि एक घटना के बाद आगे बढ जाने के लिए ज़रूरी मानसिक मोहलत भी आपको नहीं दे सकता। बिना निजी स्पेस में जाए आप कभी मनन नहीं कर सकते और रूटीन आपको कभी वह निजी स्पेस नहीं देता। इसलिए जब अमू पिता के घर जाना चाहती है, वह भी महीने भर का राशन घर में ख़रीद कर रख के, तो वरुण कहता है तुम बात बढाना चाहती हो।
हम भूल जाते हैं कि कुछ बातें वाकई बढ जाएँ तो बढ पाना आसान हो जाए। वही होता है। कानूनी मसला बनते ही वे सब इल्ज़ाम लगते हैं अमू पर जो उसके लिए अकल्पनीय थे। वह कहती है वरुण से- यह पक्ष पहले देखा होता तुम्हारा तो तुमसे कभी प्यार नहीं करती। लेकिन पहले कैसे देखती अमू? जब तक गाल पर आक्रथप्प्ड़ नहीं पड़ा वह उन सारे थप्पड़ों को अनदेखा करके आगे बढती गई जो उसे लगातार पड़ रहे थे।
अमू की पड़ोसी जब अपनी गाड़ी लेकर निकलती है तो वरुण अमू से कहता है- फिर नई गाड़ी, क्या, करती क्या है ये? उसका टिफ़िन कार के पास लिए खड़ी अमू कहती है- मेहनत। किसी औरत की हुई मेहनत वरुण के लिए मेहनत है कहाँ? जैसे अमू का घर सम्भालना भी कोई मेहनत नहीं है वरुण की नज़र में।
मेरी सीमित जानकारी में,हिंदी में शायद यह पहली फिल्म है जो घरेलू उत्पीड़न का मुद्दा ले आई है।
नेत्रा, जिसका पति सोचता है कि मेरे नामी वक़ील पिता और मेरी पत्नी होना नेत्रा को मिला विशिष्ट अधिकार है उसके साथ एक दृश्य देखते हुए मैं बेहद असहज हुई जब नेत्रा का पति नशे में स्त्री-द्वेषी बातें कर रहा है, नेत्रा असहज है लेकिन वह चाहता है कि वह सारे एहसानों के लिए उसे थैंक यू कहे। वह उसपर झुकता हुआ कहता है तुम्हें कुछ नहीं करना मैं थैंकयू अपने आप ले लूँगा।
यह फिल्म अपनी दस साल की बेटी के साथ देखी थी मैंने और इसी दृश्य पर वह बोली- मम्मी यही रेप होता है? मुझे सच कहना ही बेहतर लगा- हाँ ! वैवाहिक बलात्कार ही था वह। बिना कंसेंट का। बिना सामने वाले की इच्छा के सम्मान के। वही नेत्रा अगर अंत में अपने सम्मान की रक्षा के लिए दया-स्वरूप मिला वह दफ्तर न छोड़ती तो मैं सम्मान का ठीक-ठीक मतलब बेटी को समझा न पाती।
स्वाति कहती है- हाँ कर ही लेंगे शादी भी सगाई की है तो, लेकिन क्या ज़रूरी है? ऐसे भी तो ख़ुश ही हैं!
कितनी स्टुपिड बात है, ऐसा भाव स्कूटर चलाते अमू के भाई के चेहरे पर आता है। अमू की हाउस हेल्प सुनीता को पति बीच रास्ते में लताड़ कर साइकिल से उतार देता है कि पैदल आना अब। क्योंकि उसने कह दिया था प्यार से कभी नहीं बोलता! प्यार ही नहीं, प्यार का वक़्त की नहीं तो बच्चा कैसे होगा? रास्ते में खड़ी वह दूर जाती उसकी साइकिल पर चिल्लाती है- अपनी जाँच करा ले! पति से लगभग रोज़ ही पिटना सुनीता की ज़िंदगी है और इसी सुनीता की वजह से फ़िल्म मेरे लिए ज़्यादा मानीखेज़ हुई। सुनीता की वजह से ही शायद अमू ने भी अपनी ज़िंदगी को पलट कर फिर से देखा।
अमू का भाई अपनी मंगेतर से कहता है आख़िर में कि तुम मुझसे बेहतर व्यक्ति के योग्य हो। मुझे अपना पूरा सिस्टम रीबूट करना होगा। लेकिन रीबूट तो साथ-साथ मिलकर करना होगा हमें। वरुण फैमिली कोर्ट में बैठा कहता है- पता नहीं कैसे मैंने मान लिया कि वह सब मेरा हक़ था। लेकिन मैं कमाऊँगा इस बार तुम्हे। सुनीता अपने हिसाब से पिटाई का बदला हाथ उठाकर लेती है। पति हक्का-बक्का देखता है उसे। कुछ और रचनात्मक सुनीता के जीवन में अंत हो सकता था बेहद क्लीशे सा दिखा यह।
केस जीतने के लिए वरुण किसी भी हद तक जाना चाहता है। वह उसी पड़ोसी के, जिसका किरदार दिया मिर्ज़ा ने निभाया है, पास जाता है और कहता है क्या तुम कह सकोगी कि उस रात पार्टी में ऐसा कुछ नहीं हुआ? वह जो कहती – मेरी शादी एक कमाल के आदमी से हुई थी और मैं मानती थी कि सभी मर्द बेहतरीन होते हैं। मैं अब भी यही मानते रहना चाहती हूँ। इसलिए समझूंगी कि मैंने तुम्हारी ये बात सुनी ही नहीं।
हम स्त्रियाँ, यही मानना चाहती हैं कि मर्द बेहतरीन इंसान होते हैं। क्या इस बात का कोई मोल है आपके लिए?
दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामलाल कॉलेज में अध्यापिका सुजाता जानी-मानी स्त्रीवादी लेखिका हैं. पिछले साल आये चर्चित उपन्यास ‘एक बटा दो‘ के अलावा स्त्री विमर्श पर उनकी किताब ‘स्त्री निर्मिति’ और कविता संग्रह ‘अनन्तिम मौन के बीच‘ भी ख़ूब सराहे गए हैं. इन दिनों राजस्थान पत्रिका में कॉलम लिखने के साथ वह स्त्रीवादी आलोचना पर काम कर रही है.
संपर्क : chokherbali78@gmail.com
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