अपने सूनेपन की मैं रानी मतवाली
प्राणों के दीप जलाकर करती रहती दीवाली
छायावाद को जब सबने गरियाया तो पंत और निराला भी उसमें शामिल होकर प्रगतिवाद की ओर मुड़ गए। लेकिन एक मतवाली थी जिसे अपने छायावादी होने पर कोई शर्म नहीं थी। ताने दिए गए, व्यंग्य किए गए, उनकी कविता को अनुमान की कविता कहा गया, किसी ने कहा कि जिसे जीवन में इतना दुलार मिला वह वेदना की कविता क्यों लिखती है, किसी ने पूरे छायावाद को ही बेमानी बता दिया। लेकिन महादेवी वर्मा अपने गद्य में समस्त जीव- जगत को अपनी करुणा के दायरे में समेटकर, अपना परिवार बनाकर, परिवार की पितृसत्तात्मक परिभाषा को चुनौती देती रही और कविता में अपने आत्म की निर्द्वंद्व छवि अंकित करके भी उस पितृसत्ता को चुनौती देती रही जो आत्म से निर्वासित स्त्री को पूज्य मानती है। महादेवी ने भी ज़रूर सुनी होंगी अपनी आलोचनाएँ लेकिन ज़िंदगी भर उनकी कोई परवाह नहीं की। बकौल ग़ालिब – गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही।
शचीरानी गुर्टू ने जैनेंद्र से एक साक्षात्कार में पूछा था कि अगर महादेवी माँ और गृहिणी होती तो ? जैनेंद्र भी जवाब में कहते हैं कि तब उनकी कविता इतनी सूक्ष्म, गूढ या जटिल न होती, प्रकृत होती। सहज होती।
यह प्रश्न भी अटपटा है और जवाब भी। सवाल भी पितृसत्तात्मक और जवाब भी। स्त्री का ‘सहज’ वही होगा जो सहज समाज ने बनाया है। यानी शादी करना, बच्चे पैदा करना। वह शादी में न रहना चुनती है, अकेलापन पूरी ठसक से स्वीकारती है अपना तो वह सहज नहीं है क्योंकि हम उसे सहज नहीं मानते। माँ बने बिना वह संसार भर के लिए वात्सल्य से पूर्ण है इस बात का कोई अर्थ नहीं क्योंकि वह अपने गर्भ से शिशु उत्पन्न नहीं करती?
छायावाद का पक्ष लेते हुए और पूरी ठसक से कविता और गद्य लिखते हुए महादेवी वर्मा ने अपनी एक जगह बनाई जिसे चुनौती देना आलोचक के लिए असम्भव हो गया। अपने अकेलेपन का उत्सव मनाती, दुख को सुख पर प्रश्रय देती, वेदना के माल गूँथती और फिर भी जीवन में अकुण्ठ रहती, निश्शंक हँसती हुई यह स्त्री स्वीकारी जाने के लिए इतनी कठिन हुई कि रहस्य करार दी गई। जिसने अपनी कविता के लिए कभी अपोलोजेटिक स्वर नहीं अपनाया, जिसने अपने सामाजिक सरोकारों का दिखावा नहीं किया, जिसके राष्ट्रीय कर्तव्यों को किनारे करके एक काव्य पंक्ति ‘नीर भरी दुख की बदली’ में रिड्यूस किया गया वह बेपरवाह अपनी ‘अपूठी चाल’ (मीराँ की पंक्ति) चलती रही। उसने परिवार की परिभाषा ही बदल दी और ‘मेरा परिवार’ में जीव-जगत सबको शामिल कर लिया। विवाहित होकर भी उस विवाह में बंधे न रहने का निर्णय लिया, गाँधी जी के विचारों से प्रभावित हुई, बौद्ध धर्म की दीक्षा भी ली लेकिन भिक्षुणी बनना नहीं स्वीकारा। यही एक जन्म और यही पठन-पाठन उनकी कर्मभूमि था। बध-चढ कर आलोचक उनके काव्य में ये दर्शन और वो दर्शन दिखाने की भले ही कोशिश करें उनकी कविता ही उनके अंतर का सच्चा प्रमाण है।
क्या अमरों का लोक मिलेगा तेरी करुणा का उपहार ?
रहने दो हे देव! अरे यह मेरा मरने का अधिकार ।
उनके काव्य में पीड़ा से मोह है इसलिए वह जीवन से अस्वीकृति का काव्य है लेकिन पीड़ा की अभिव्यक्ति जीवन की स्वीकृति है।
मेरे हँसते अधर नहीं जग की
आँसू-लड़ियाँ देखो
मेरे गीले पलक छुओ मत
मुरझाई कलियाँ देखो
महादेवी क्या यह सच नहीं जानती कि दुख और वेदना को लेकर उनकी कविता पर निरंतर आक्षेप होते रहे? एक मनुष्य की वेदना उसकी निजता का हिस्सा है महादेवी जानती हैं और निजता की रक्षा करना उनसे बेहतर कौन जान सकता है जो सम्मेलनों में इसलिए कविता पढने से घबराती थी कि ‘भीड़ में व्यक्ति को समझा नहीं जाता’ यह कष्ट कि एक पुरुष-प्रधान समाज में उन सरीखी स्त्री को धैर्य से सुना और समझा जाएगा इसे समझना आलोचक के लिए मानो बेहद कठिन रहा। वह लिखती हैं-
जब तेरी ही दशा पर न दुख हुआ संसार को
कौन रोएगा सुमन! हमसे मनुज नि:सार को।
इसलिए यह एकांत साधना और दुर्बोध हो जाती है दुनिया के लिए कि यह एक सुशिक्षित, प्रबुद्ध, रचनात्मक स्त्री की चुनी हुई साधना है और वह भी ऐसी कि जिसका धर्म से कोई लेना देना नहीं। कविता लिखना भी उसी एकांत का हिस्सा है। वे लिखती हैं-
ऐसी कविताएँ कम हैं जिनके लिखते समय मैंने रात में चौकीदार की सजग वाणी या किसी अकेले जाते हुए पथिक के गीत की कोई कड़ी नहीं सुनी.
यहाँ मत आओ मत्त समीर सो रहा मेरा एकांत
बनाओ न इसे लीला भूमि तपोवन है मेरा एकांत
अपने वैवाहिक जीवन के बारे में महादेवी कुछ अधिक नहीं खोलतीं। यह भी उनका अधिकार है और उनका चयन। ऐसा सम्भव नहीं कि इसपर उन्हें सवालों का सामना नहीं करना पड़ा होगा। बल्कि आज के समय में रहते हुए हमें यह उनके समय के हिसाब से बेहद चुनौतीपूर्ण लगता है। और भी समझदारी से वे ऐसी बातों का कोई महत्व दिए बिना कहीं कहीं बता देती हैं कि ये सवाल उनके तईं कितने बेमानी है। ‘स्त्री कब किसी साधना को अपना स्वभाव और किसी सत्य को अपनी आत्मा बना लेती है तब पुरुष उसके लिए न महत्व का विषय रह जाता है न भय का कारण।’
ऐसी परिस्थियों में प्रेम की अभिव्यक्ति खतरे से खाली थोड़े है! तड़ित है उपहार तेरा/ बादलों सा प्यार मेरा – (दीपशिखा) महादेवी तो लिख जाती थीं लेकिन उनके एक एक लफ्ज़ पर आलोचकों की निगाह रहती होगी तभी
आलोचक के लिए बड़ी बेचैनी का सबब यह है कि प्रेम का भी कोई आलम्बन सामने दिखाई नहीं देता!
मेरे प्रिय को भाता है
तम के पर्दे में आना
ओ नव्ह की दीपावलियों
तुम चुपके से बुझ जाना
प्रेम है, विरह है पीड़ा है लेकिन सब अनुमान है। लेकिन क्या प्रेम और पीड़ा के लिए एक आलम्बन का सामने होना ज़रूरी है? दुनिया को जब तक पता न चले तो कि किसे सम्बोधित किया गया है क्या तब तक प्रेम और विरह की पीड़ा का कविता में कोई जगह नहीं? कोई मूल्य नहीं? उर्दू शायरी में तो कभी नहीं पूछा गया कि महबूब कौन है? यह पीड़ा किसलिए है? किसका विरह है? महादेवी लिख दें- तुमको पीड़ा में ढूँढा/ तुममे ढूँढूँगी पीड़ा तो मज़ाक उड़ाइए और कोई शायर लिख दे तो वाह वाह ! यह दोगलापन नहीं है हिंदी पाठक का तो क्या है?
महादेवी पर गांधी जी के विचारों और जीवन का प्रभाव था। हमेशा उन्हें सफेद खादी की धोती में ही देखा गया। कहते हैं एक बार कोई महादेवी के पास एक पत्रिका ले गया और बोला आप शीशे में देखिए आपकी तस्वीर बिल्कुल बैसी नहीं आई जैसी आप दिखती हैं! वे हँसकर बोली- अब इसके लिए घर में शीशा भी रखना पड़ेगा!
निराला के बुरे वक़्त में उनकी मदद करने में वे सबसे आगे थीं। इलाहाबाद की साहित्यकार संसद में कई कई महीनो निराला रहे। महादेवी हमेशा इस बात से चिढती थी कि प्रकाशक निराला का पैसा मारे बैठे हैं।
निराला भी उनके लिए लिख गए –
हिंदी के विशाल मंदिर की वीणापाणि
स्फूर्ति चेतना रचना की प्रतिमा कल्याणी
संसार के प्रति करुना रखने वाली महादेवी का राष्ट्र-सेविका रूप कैसे भुलाया जा सकता है? 47 में नोआखली के पीड़ितों के लिए उन्होने साहित्यकारों से पैसा इकट्ठा करके भिजवाया था। 1942 में भी बंगाल उन्होंने मदद भेजी थी। महिला विद्यापीठ स्थापित किया और लड़कियों की शिक्षा को महत्वपूर्ण योगदान दिया उन्होंने।
प्रभाकर माचवे ने अपने महत्वपूर्ण लेख में खण्डन किया है तीनों बातों का। एक तो महादेवी की तुलना मीराँ से किए जाने की। उनके काव्य में बौद्ध दर्शन देखने की। उन्हें रहस्यवादिनी कहे जाने का। वे लिखते हैं- मीराँ आज पुन: जीवित होती तो वे महादेवी ही बनती या कुछ और यह कहना उतना ही कठिन है जितना महादेवी जी के काव्य में उपनिषद और वेदांत के ब्रह्म तत्व को खोजने का निरथक यत्न करना। मीराँ कहती हैं जो मैं ऐसा जानती प्रीत करे दुख होय /नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत कर न कोय। लेकिन महादेवी उस पीड़ा को अपना लेती है।
कैसे कहती हो सपना है
अलि! उस मूक मिलन की बात?
भरे हुए अब तक फूलों में
मेरे आँसू उनके हास !
न यह स्वप्न है, न यह अनुमान है, न यह ईश्वर को प्रेमी मानकर अभिव्यक्त किए उद्गार हैं। यह कवि की पंक्तियाँ हैं और उसका प्रेमी जो भी कोई है उसके प्रति उसका महसूस करना झूठ नहीं है। अगर यह झूठ है तो समस्त काव्य ही झूठ है क्योंकि कवि उन समस्त अनुभूतियो पर लिखता है जिन्हें प्रत्यक्ष जीवन में कभी महसूस करने के मौके उसे नहीं मिले। लेकिन वह काव्य उतना ही सच्चा होता है। यहाँ सारी समसया स्त्री के जेंडर की वजह से सामने आती है। स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता का पैमाना जेंडर्ड साहित्यिक मापदण्डों की वजह से ही बनता है।
दरअसल यह उनकी दिक्कत ज़्यादा रही जो अपने मन का दूसरे के काव्य में देखने के आग्रही होते हैं। क्यों किसी को वह कविता करनी चाहिए जोकि आपको लगता है कि उसे करनी चाहिए? देवेंद्र सत्यार्थी महादेवी को याद करते हुए अपने निबंध में तीन जगह लिखते हैं कि यह या वह उनकी कविता में क्यों नहीं आता? कुछ विषय अछूत क्यों समझे उन्होंने कविता में? क्या यही बात महादेवी तुम्हारी कविता में नहीं आ सकती?
और पूछता क्यों शेष कितनी रात, जाग तुझको दूर जाना, जाग बेसुध जाग जैसी कविताएँ उनके मूल्यांकन में क्या गिनी नहीं जाएंगी? यूँ भी महादेवी के गद्य और पद्य को अलग-अलग देखना भी बड़ी दिक्कत पैदा करता है। यह समझना होगा कि उनकी कविता और गद्य बिखरे हुए नहीं हैं उन्हें साथ रखकर ही महादेवी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व बनता है।
जिस तरह उनके गीतों में भाषा प्रवहमान दिखाई देती है, नाचती है उनके संकेतों पर वे शब्दों की जादूगर दिखाई देती हैं। संस्कृत में एम ए और आत्मा में एक कवि बसा हुआ उनके गद्य में भी दिखाई देता है।
अब धरा के गान ऊँचे
मचलते हैं गगन छूने
किरण रथ दो
सुरभि पथ दो
और कह दो अमर मेरा हो चुका संदेश (दीपशिखा)
आधुनिक कवि की भूमिका में वे लिखती हैं- साहित्य मेरे सम्पूर्ण जीवन की साधना नहीं है यह स्वीकार करने में मुझे लज्जा नहीं है। आज हमारे जीवन का धरातल इतना विषम है कि एक पर्वत के शिखर पर बोलता है और दूसरा कूप की अतल गहराई में सुनता है। इस मानव समष्टि में जिसमें सात प्रतिशत साक्षर और एक प्रतिशत से भी कम काव्य के मर्मज्ञ हैं हमारा बौद्धिक निरुपण कुण्ठित और कलागतसृष्टि पंखहीन है। शेष के पास हम अपनी प्रसाधित कलात्मकता और बौद्धिक ऐश्वर्य छोड़ कर व्यक्ति-मात्र होकर ही पहुँच सकते हैं। बाहर के वैषम्य और संघर्ष से थकित मेरे जीवन को जिन क्षणों में विश्राम मिलता है उन्हीं को कलात्मक कलेवर में स्थित कर मैं समय समय पर उनके पास पहुँचाती रही हूँ जिनके निकट उनका कुछ मूल्य है। शेष जीवन को जहाँ देने की आवश्यकता है वहाँ उसे देने से मेरा मन कभी कुण्ठित नहीं होगा।
इन प्रतिक्रियाओं के चलते भी महादेवी ने दुर्ज्ञेय बनने की चाह रखी। वाकई क्या ऐसे में उन्हें समझा जा सकता था?
अमृतराय ने उनकी कविताओं के लिए कहा- ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ बस इस पंक्ति से आप महादेवी के पूरे काव्य को समझ लीजिए तो समझ आता है कि महादेवी का रचना कर्म किस कदर मर्दवादी आलोचना पद्धति का शिकार हुआ। रामविलास शर्मा ने अपने एक लेख में ऐसे तमाम मर्दवादी आलोचनाओं को एकसाथ रखकर जवाब दिया है। मुझे कुछ और करने की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि कृष्णदत्त पालीवाल ने भी महादेवी पर अपनी किताब के आख़िरी अध्याय में मर्दवादी आलोचकों के उद्धरण दर उद्धरण देते हुए सब कट्टम-कुट्टस कर दिया है। रही सही कसर महादेवी वर्मा पर स्त्री-रचनाकारों की टिप्पणियों से पूरी हो जाती है।
महादेवी की ‘शृंखला की कड़ियाँ’ सिमोन की किताब ‘द सेकेण्ड सेक्स’ से भी पहले आई किताब है। स्त्री-स्वातंत्र्य और उसमें भी स्त्री के आर्थिक स्वातंत्र्य के महत्व को रेखांकित करते हुए वे हिंदी की एक पुरखिन स्त्रीवादी के रूप में सामने आती हैं। भारतीय स्त्री के अपने संकटों का विवेचन उन्होंने अपने समय और सामाजिक संदर्भों में किया और ठीक-ठीक राष्ट्रवादी आंदोलन में स्त्री की बनाई जाती छवि उन्हें एक सम्सया दिखाई दी।
वह लिखती हैं- ‘हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय; न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वह स्वत्व चाहिए जिनका पुरूषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग नही बन सकेंगी। हमारी जागृत और साधन सम्पन्न बहनें इस दिशा में विशेष महत्वपूर्ण कार्य कर सकेंगी, इसमें सन्देह नहीं।’
यह ठीक वही स्त्रीवादी स्टैण्ड है जो ‘सत्ता’ की आलोचना करता है और अपने अस्तित्व, वजूद के विकास के लिए बराबरी के मौको की मांग करता है।
सुभद्राकुमारीचौहान और महादेवी वर्मा समकालीन थीं और दोनो भिन्न प्रतिभाओं की कवि थीं। दोनो एक ही स्कूल में पढी। दोनो सखा। दोनो का नाम हिंदी की आधुनिक कविता के इतिहास में अमिट हो गया। हम कथा साहित्य में प्रेमचंद और प्रसाद की परम्पराएँ पढते हैं, हिंदी स्त्री-कविता का स्वाभाविक विकास होता तो सुभद्राकुमारी और महादेवी की दो भिन्न परम्पराएँ विकसित होतीं कौन जाने!
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामलाल कॉलेज में पढ़ाती हैं और स्त्रीवादी लेखन में लगातार सक्रिय हैं. उनका एक कविता संकलन(अनन्तिम मौन के बीच), एक उपन्यास (एक बटा दो) और एक वैचारिक पुस्तक (स्त्री निर्मिति) प्रकाशित हैं. इन दिनों स्त्रीवादी आलोचना पर एक किताब पर काम कर रही हैं.
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