अशोक कुमार पाण्डेय की ये कविताएँ सबसे पहले अपने कथ्य के कारण ध्यानाकृष्ट करती हैं और वह कथ्य लक्ष्यहीन नहीं है, विचारधारात्मकता के साथ है, जिसे मैं महत्वपूर्ण मानता हूं। ये हवाहवाई कविता नहीं है और कवि के कन्सर्न्स के साथ है। ये लक्षण इधर की अधिकांश हिन्दी कविता में अब गायब हो रहे हैं। फिर इनमें उपस्थित सामाजिक न्याय के आकांक्षी संदर्भ, समकालीनता की समस्याएँ, इतिहासबोध, श्रमाश्रित आशावाद और पूँजीवादी साम्राज्यवाद की निशानदेही जैसे लक्षण भी रेखांकित किए जा सकते हैं। किसी नये कवि में इन तमाम पक्षों की उपस्थिति आश्वस्तिदायक है।
यहॉं कला, शिल्प और प्रयोगधर्मिता पर उतना आग्रह नहीं है जितना कह देने पर और संप्रेषणीयता पर है। इन कविताओं में कथ्य की उपस्थिति है.इसे कविता के एक और उल्लेखनीय रंग की तरह देखा जा सकता है। जीवन में उपस्थित विडंबनाओं, अंतर्विरोधों और वर्गीय अंतर को इन कविताओं में सर्वाधिक लक्षित किया जा सकता है। इसे देखने में और कविता के माध्यम से रख देने में इन कविताओं के प्रस्थान बिंदु हैं।
इन्हीं कारणों से वे आर्थिक सुधारजन्य, व्यक्तिवादी, पूँजीवादी विकास से पैदा हो रहे मध्यवर्गीय लालसाओं के सपनों कों सबसे बुरे दिन की तरह देख पाते हैं। ‘जगन की अम्मां’ के बहाने भी वे इसी उदग्र समय की पड़ताल करते हैं। इसी क्रम में वे मानवीय मूल्यों की खोज भी करना चाहते हैं। ‘एक सैनिक की मौत’ में शहादत और नौकरी के बीच हम उस तंत्र को भी समझने की कोशिश कर सकते हैं जो दरअसल सत्ता की रक्षा के लिए ही बनाया गया है।
‘वे चुप हैं’, ‘तुम्हें प्रेम करते हुए अहर्निश’, ‘काम पर कांता’, ‘यह हमारा ही खून है’, ‘अरण्यरोदन नहीं है चीत्कार’ और इर्मिला शिरोम को याद करते हुए अनेक कविताऍं प्रमाण हैं कि अशोक कुमार पाण्डेय प्रस्तुत समय के कवि-दायित्व के प्रति सजग हैं, हस्तक्षेप करते हैं और जीवन तथा कविता में उपलब्ध सक्रियता की फॉंक को लगातार कम करते हैं। वाग्जाल और ढुलमुलपने के बरअक्स वे पक्ष लेते हैं, अपना कोण तय करते हैं। अपने इरादों में ये राजनैतिक कविताऍं हैं।
उन्होंने इन कविताओं के जरिए स्वयं को एक प्रतिबद्ध कवि की तरह सामने रख दिया है। यह संग्रह ही संभावना जगाता है कि वे समकालीन हिन्दी कविता के आगामी दृश्य में प्रखर जगह के हस्ताक्षर हैं।
-कुमार अंबुज