वे पूछना चाहते थे – हमारी ख़ता क्या थी आख़िर?
- अशोक कुमार पाण्डेय
वे सड़कों पर हैं.
वही जो कल तक आपके नल ठीक करते थे. आपकी बिजली ख़राब हो जाने पर दौड़े आते थे. आपके पौधों में खाद डालते थे. आपके कपड़े प्रेस करते थे. आपकी सूनी दीवारें रंगों से भर देते थे. फैक्ट्रियों में आपके लिए सामान बनाते थे.
शहर के पुराने इलाक़ों में किसी गुमनाम सी गली में घर थे उनके किराए के जहाँ न रौशनी पहुँचती थी न हवा. सुबह घर से निकलते थे और रात होते लौटते थे तो उनकी जेबों में अपने बच्चों के लिए कुछ सपने होते थे. शहर के सस्ते स्कूलों में पढ़ाते थे वे उन्हें और सपना देखते थे कि कल रौशन घरों में रहेंगे वे. सस्ती सी टीवी पर राष्ट्रभक्ति के भाषण सुनते थे. क्रिकेट टीम की क़ामयाबी पर शोर मचाते थे. फ़िल्में देखते थे. उन्हीं गलियों में बसा लिया था एक देश जहाँ व्रत त्यौहारों में हँसते थे, गाते थे.
यह रोग हवाई जहाज़ों में आया था. उन घरों में जहाँ वे जाते थे कभी-कभार काम करने. वे घर बंद हो गए. सड़कें बंद हो गईं. बाज़ार बंद हो गए. फैक्ट्रियाँ बंद हो गईं और बंद हो गया उनकी आमदनी का जरिया. उनके बैंकों में बचत नहीं थी. वे भिखारी नहीं थे, पसीना गिराकर खाना सीखा था. मेहनत की दौलत लिए अपने गाँवों-क़स्बों से निकल आये थे. उनसे मेहनत करने का हक़ छीन लिया गया और कट गए उनके हाथ. मालिकों ने तनख्वाह देने से मना कर दिया और मकान मालिकों ने किराया माँगा. चौराहे की राशन की दुकान कब तक उधार देती?
उन्होंने लौटने का फ़ैसला किया.
पैदल
जिस व्यवस्था के पास अकूत दौलत थी वह उनके लिए न शहर में रोटी का इंतजाम कर सकी न लौटने के लिए गाड़ी का. हज़ारो किलोमीटर का सफ़र था पावों में और होठों पर शिकायत. सुनने वाला ही न था कोई बस.
वे पूछना चाहते थे – हमारी ख़ता क्या थी आख़िर?
ग़रीब होना सबसे बड़ी ख़ता है शायद. वे जानते थे शायद. इसलिए चलते रहे चुपचाप. टूट गईं चप्पलें, छाले पड़ गए पावों में, जला दिया मई की धूप ने. लेकिन चलते रहे वे..चलते ही जा रहे हैं. किसी ने खिला दिया तो खा लिए. किसी ने पानी दे दिया तो गला तर कर लिया.
जानते हैं वे कि कोई ख़ज़ाना नहीं रखा उन गावों में जहाँ से एक बेहतर भविष्य की कल्पना लिए चले आये थे वे शहरों में. फिर भी…एक उदास छत और दो जून की रोटी तो मिल ही जाएगी.
सवाल तो खड़े हैं अब भी हमारे लोकतंत्र के सामने – हम अपने मज़दूरों को महीना भर दो जून

तस्वीर नेशनल हेराल्ड से साभार
की रोटी भी नहीं दे पाए!
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