चौदहवीं सदी से जारी इस्लामीकरण के चलते इस समय तक घाटी में हिन्दुओं की जनसंख्या कोई पाँच प्रतिशत रह गई थी । आमतौर पर सभी कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीरी पंडित कहा जाता है क्योंकि शेष जातियों ने धर्म परिवर्तन कर लिया था ।
ज़ैनुल आबदीन ने सिकन्दर के समय कश्मीर छोड़कर चले गए ब्राह्मणों को वापस बुलाया और जिनका ज़बरदस्ती धर्मपरिवर्तन करा दिया गया था उन्हें पुनः अपने धर्म में लौटने का अवसर दिया। इन क़दमों में ब्राह्मण समाज को राहत तो दी लेकिन उसके भीतर एक हलचल भी पैदा की। अब तक एक सुरक्षित तथा अनुकूल समाज में सर्वोच्च पायदान पर स्थित रहे पवित्रता पर आधारित श्रेष्ठता की मान्यता से ग्रस्त ब्राह्मण समाज के लिए इन परिवर्तनों को स्वीकार करना आसान नहीं था और इसने समाज के भीतर आंतरिक विभाजनों को जन्म दिया।
बनमासी और मलमासी
जो ब्राह्मण सिकन्दर के समय भी कश्मीर छोड़कर नहीं गए उन्हें “मलमासी” जबकि ज़ैनुल आबदीन के समय लौट आए ब्राह्मणों को “बनमासी” कहा गया। हालाँकि दोनों के बीच कोई ख़ास अन्तर नहीं था सिवाय इसके कि ये ज्योतिष कैलेण्डर के अलग-अलग रूप मानते थे।[i]
सेंडर्स कश्मीरी ब्राह्मण समुदाय की सामूहिक स्मृति में दर्ज़ ‘जूठी हड्डी’ और ‘सच्ची हड्डी’ जैसे विभाजन का ज़िक्र भी करती हैं जहाँ ज़ैनुल आबदीन के समय वापस लौटकर आए ब्राह्मणों को ‘जूठी हड्डी’ कहा गया।[ii] आनंद कौल एक और विभाजन की चर्चा करते हैं। वह बताते हैं कि मुस्लिम शासन में ब्राह्मणों को यह कहा गया कि या तो वे मृत्युदंड स्वीकार करें या फिर मुस्लिम के हाथ का पकाया भोजन ग्रहण करें। धर्मभ्रष्ट को न्यूनतम करने के लिए कुछ ब्राह्मणों ने मुसलमानों द्वारा उबाला गया चावल खाने की सहमति दी। ब्राह्मण समाज ने इसकी भर्त्सना की और जान न देने की कायरता के लिए उन्हें अपमानित करते हुए ‘लेजी बट’ की संज्ञा दी, लेजी कश्मीरी में हांडी को कहते हैं।[iii]
जियालाल किलाम के यहाँ हसन शाह के शासन के अन्तिम समय में सैयदों द्वारा के मुनि के अपने क्षेत्र में शिक़ार से रोकने पर ब्राह्मणों के बर्तनों में शिक़ार जानवरों के मांस खाने तथा लूटपाट का जिक्र आता है[iv] लेकिन लेजी बट जैसी श्रेणी का नहीं। कौल एक और श्रेणी पूरिब या वुरूद का ज़िक्र करते हैं और उसके अवैध उत्पति का या फिर ब्राह्मण द्वारा दूसरी जातियों के साथ वैवाहिक सम्बन्धों से पैदा हुआ बताते हैं। लेजी और पूरिब ब्राह्मणों के साथ शेष कश्मीरी ब्राह्मणों का भोजन व्यवहार नहीं था।
कारकून और गोर ब्राह्मण
लेकिन सबसे रूढ़ श्रेणी विकसित हुई ब्राह्मणों के फ़ारसी सीखने के फलस्वरूप।
ज़ैनुलआबेदीन के समय में नई व्यवस्था से तालमेल बिठाने के लिए ब्राह्मणों ने समाज को समायोजित किया जिसने ब्राह्मण समाज में एक नए श्रेणी विभाजन को जन्म दिया। इन परिवारों के अधिकतर पुरुष सदस्यों ने फ़ारसी सीखी और शासकीय सेवा में कर्मचारी, अनुवादक, क्लर्क जैसे पदों पर स्थापित हुए जबकि एक या दो ने संस्कृत तथा धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और पारम्परिक धार्मिक कार्यों में संलग्न हुए।
पहली श्रेणी के ब्राह्मणों को “कारकून” तथा दूसरी श्रेणी को “भाषा बट” या “गोर” (गुरु) कहा गया। किलाम का मानना है कि बेटी के लड़के को संस्कृत तथा धर्मशास्त्र की शिक्षा दिलाई गई जिससे वह परिवार के धार्मिक संस्कार कर सके। हालाँकि वह न तो इसका कोई कारण देते हैं न ही यह बताते हैं कि इसकी वजह से कश्मीर में कैसे पैतृक गोत्र विभाजन हुए।
टी एन मदान की मान्यता है कि यह श्रम विभाजन समाज में पेशागत आधार पर दो श्रेणियों में विकसित हुआ और इसी प्रक्रिया में गोत्रों में विभाजित हुआ। संस्कृत और धर्म शास्त्र का अध्ययन कर पारम्परिक पेशा अपनाने वालों में से जिन्होंने कर्मकाण्ड करना नहीं चुना उन्हें पण्डित या ज्योतिषी कहा गया। गोर एक सगोत्रीय समाज बना जबकि ज्योतिषी वर्ग में अलग-अलग गोत्र रहे।
कारकून और गोर का यह विभाजन वर्तमान समय तक जारी है। समय के साथ संख्याबल और सामाजिक-आर्थिक प्रभाव के चलते कारकून ब्राह्मण समाज में सबसे प्रभावी होते के गए। कर्मकाण्ड में संलग्न तथा अन्तिम क्रिया आदि में दान-दक्षिणा स्वीकारने वाले गोर ब्राह्मणों को अपवित्र माना गया और कारकून वर्ग के ब्राह्मणों के साथ उनके वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होते, जबकि ज्योतिषी और कारकून वर्ग के बीच इस तरह के सम्बन्ध होते हैं। एक विभाजन गाँव और शहर में रहने वालों में भी है. शहरी ब्राह्मणों को श्रेष्ठ माना जाता है.
कश्मीरी पंडितों में मिश्रा-शुक्ला-तिवारी-पांडे नहीं होते. इनके जातिनाम अक्सर उनके पेशों से जुड़े थे, जैसे
यहाँ प्रसिद्ध जातिनाम नेहरू पर भी बात कर लेना उचित होगा । नेहरु मूलतः कौल ब्राह्मण थे। नेहरू अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि यह नाम दिल्ली में नहर के किनारे बसने से पड़ा लेकिन कश्मीरी इतिहासकार मोहम्मद युसुफ टैंग का मानना है कि संभवतः उनके किसी पुरखे को नहरों का मीर मुंशी बनाया गया था जिससे उनके नाम में नारू (नाला से नारू) जुड़ गया, जो कालान्तर में नेहरु हो गया.
स्रोत
[i]देखें, पेज़ 17-18, फेमिली एंड किनशिप : अ स्टडी ऑफ़ द पंडित्स ऑफ़ रूरल कश्मीर, टी एन मदान, ऑक्सफ़ोर्ड इंडिया पेपरबैक्स, पाँचवाँ संस्करण, दिल्ली-2016
[ii]देखें, पेज़ 42, द कश्मीरी ब्राह्मंस (पंडित्स) अपटू 1930 : कल्चरल चेंज इन द सिटिज़ ऑफ़ नॉर्थ इण्डिया, हेनरेट एम सेंडर्स (विस्कोंसिन मेडिसन विश्वविद्यालय से किया गया शोध कार्य)
[iii]देखें, पेज़ 22, द कश्मीरी पंडित्स, पंडित आनंद कौल, थैकर, स्पिंक एन्ड कम्पनी, कोलकाता-1924
[iv]देखें, पेज़ 57, अ हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीरी पंडित्स, जियालाल किलाम, उत्पल पब्लिकेशन, दिल्ली, (प्रथम संस्करण 1951) संशोधित संस्करण 2003
[v] देखें, पेज़ 9, पर्सनल नेम्स ऑफ़ कश्मिरीज़, ओंकार नाथ कौल, http://www.koausa.org/iils/pdf/PersonalNames.pdf
[vi] देखें, सोश्याल्जी ऑफ़ कश्मीरी निकनेम्स, मोहम्मद अशरफ़, 28 अप्रैल, 2016 का काउंटर करेंट
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