आज ही के दिन 1947 में जम्मू और कश्मीर के शासक हरि सिंह ने भारत के साथ विलय समझौते पर हस्ताक्षर किये थे.
हरि सिंह देश की आज़ादी के समय भारत या पाकिस्तान में विलय की जगह स्वतन्त्र डोगरिस्तान बनाने के ख्बाव देख रहे थे और दोनों ही देशों को उन्होंने स्टैंडस्टिल (यानी जो जैसा है वैसा रहे) समझौते का प्रस्ताव भेजा था. पाकिस्तान से समझौता किया लेकिन भारत ने नहीं. मामला पालता तब जब पाकिस्तान ने क़बायली हमले की आड़ में कश्मीर पर आक्रमण कर दिया.
कश्मीर के “पके फल की तरह” अपनी झोली में गिरने के लिए आश्वस्त जिन्ना और पाकिस्तानी प्रशासन का इन गतिविधियों से परेशान होना स्वाभाविक था । ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री रामचंद्र काक के जाने के बाद महाराजा पर दबाव बनाने का कोई जरिया भी नहीं रहा और पुंछ तथा जम्मू की साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं के बाद यह स्पष्ट हो गया कि उनकी पहली चिंता ख़ुद को तथा अपनी उस डोगरा जनता को बचाने की है जिसके समर्थन के बल पर वह पिछली चार पीढ़ियों से जम्मू और कश्मीर का शासन चला रहे थे । हिंसा और अविश्वास के माहौल में यह भय बहुत स्पष्ट था कि पाकिस्तान से विलय जैसे किसी क़दम से घाटी और जम्मू का माहौल बिगड़ सकता था और सारे आश्वासनों के बावज़ूद ख़ुद महाराजा के लिए अपने डोगरा तथा हिन्दू बहुमत वाले प्रशासन के लिए यथास्थिति बनाये रख पाने की संभावना नहीं थी ।
इस सहकार की प्रक्रिया को और तेज़ करने के लिए शेख़ अब्दुल्ला को रिहा करने की प्रक्रिया शुरू हो गई । मेहरचंद महाजन के कहने पर शेख़ ने 26 सितम्बर को वफ़ादारी का अहद करते हुए एक ख़त लिखा[i] और तीन दिन बाद वह रिहा कर दिए गए । लेकिन सत्ता में भागीदारी जैसी किसी बात पर हरि सिंह सहमत नहीं थे । बदले हुए हालात में शेख़ के सुर भी पूरी तरह से बदले तो नहीं थे लेकिन अब वह जनता की इच्छा की बात कर रहे थे । विलय से अधिक उनके लिए डोगरा शासन से मुक्ति का सवाल महत्त्वपूर्ण था । 2 अक्टूबर 1947 को हुज़ूरी बाग़ में एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने नारा दिया “विलय से पहले आज़ादी ।” इसी भाषण में उन्होंने नेहरू से अपनी दोस्ती, कांग्रेस के सहयोग और गाँधी के प्रति सम्मान का ज़िक्र करने के बाद कहा कि विलय का फ़ैसला इस राज्य की जनता ही करेगी और अगर जनता ने पाकिस्तान से जुड़ने का फ़ैसला किया तो वह उस पर हस्ताक्षर करने वाले पहले व्यक्ति होंगे । लेकिन इसके साथ ही उन्होंने अपने राजनैतिक आदर्श को दुहराते हुए यह भी स्पष्ट किया कि अगर वह पाकिस्तान से भी जुड़े तो भी द्विराष्ट्र के उस सिद्धांत को स्वीकार नहीं करेंगे जिसने हमारे देश में साम्प्रदायिकता का ज़हर भर दिया है ।[ii]अक्टूबर की शुरूआत में आल इंडिया स्टेट पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सचिव द्वारकानाथ काचरू शेख़ अब्दुल्ला को कश्मीर के भारत से विलय के लिए राज़ी कराने गए और वहाँ से लौटकर उन्होंने नेहरू को रिपोर्ट दी कि “शेख़ अब्दुल्ला और उनके क़रीबी सहयोगियों ने भारत के पक्ष में फ़ैसला किया है ।” हालाँकि अभी निर्णय की घोषणा नहीं करनी थी । नेशनल कॉन्फ्रेंस का उद्देश्य था “जनता की सार्वभौमिकता हासिल करना जिसमें महाराजा एक संवैधानिक पद पर हों ।”[iii]
पुंछ के विद्रोहियों की अनधिकारिक सहायता के अलावा पाकिस्तान ने हरि सिंह पर दबाव बनाने के लिए आर्थिक नाकेबंदी का सहारा लिया । स्टैंडस्टिल समझौते के बावज़ूद पाकिस्तान की तरफ़ से सियालकोट और रावलपिंडी दोनों ही रास्तों से कश्मीर में सामानों की आवाजाही पर अघोषित प्रतिबन्ध लगा दिया गया । महाजन बताते हैं कि इसी दौरान पाकिस्तान सरकार के विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेज़र ए एस बी शाह श्रीनगर आये और उन्होंने पाकिस्तान के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर के लिए दबाव बनाने की कोशिश की । वह अपने साथ एक ख़ाली विलय पत्र लेकर आये थे और चाहते थे कि महाराजा इसमें अपनी शर्तें भर कर हस्ताक्षर कर दें । महाजन ने उनसे कहा कि अगर वह आर्थिक नाकाबंदी बंद कर दें तो वह महाराजा से इस विषय पर चर्चा कर सकते हैं । शाह ने तुरंत जिन्ना को टेलीग्राम किया लेकिन उधर से कोई आश्वासन नहीं मिला । जिन्ना ने महाजन से लाहौर आने और उनसे मिलने को कहा जिसे महाजन ने अस्वीकार कर दिया । इसके गंभीर नतीजों की चेतावनी देते हुए शाह लौट तो गए लेकिन कश्मीर में इसके चलते ज़रूरी सामानों की भयानक कमी हो गई और साथ में कश्मीरी व्यापारियों का फल, मेवे सहित दूसरी चीज़ों का लाखों का सामान कश्मीर में ही फंस गया ।
1 अक्टूबर को हरि सिंह ने भारत से हथियार तथा आवश्यक सामान भेजने की अपील की । भारत ने इस मौके पर मानवता के आधार पर मदद करने का फ़ैसला किया और हवाई मार्ग से दैनिक उपभोग की वस्तुएं श्रीनगर पहुँचाई लेकिन सैन्य सामग्री नहीं भेजी जा सकी ।[iv] हालाँकि पाकिस्तान इस आरोप को ग़लत बताता है और 30 अक्टूबर 1947 को लियाक़त अली ख़ान ने भारतीय प्रधानमंत्री को लिखे ख़त में कहा कि “दो अक्टूबर को मैंने सलाह दी थी कि पाकिस्तान और कश्मीर दोनों को वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने चाहिए …जब इसके बावज़ूद हमने मेज़र शाह को भेजा तो कश्मीर के प्रधानमंत्री ने उनसे मशविरा करने से इंकार कर दिया ।” बर्डवुड इसे आधिकारिक क़दम न बता कर कुछ व्यक्तियों द्वारा की गई कार्यवाही होने की आशंका जताते हैं ।[v]
ऐसा लगता है कि अपने उदय के साथ ही पाकिस्तान में एक समानांतर सरकार काम कर रही थी । पुंछ विद्रोहियों के समर्थन में हुई जिस बैठक की बात पहले की गई है उसके बारे में भी कहा गया है कि इसे जिन्ना से छिपाकर रखा गया था, आर्थिक नाकेबंदी को भी अनधिकारिक प्रयास बताया गया और फिर क़बायली हमले को भी । नवगठित देश में कश्मीर से जुड़े इन बेहद महत्त्वपूर्ण मसलों को अपने सर्वोच्च नेता क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना से छिपाकर अंज़ाम दिया जाना एक भयावह विडम्बना की ओर संकेत करता है, ख़ासतौर पर तब जब इनमें जिन्ना के सबसे क़रीबी तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री लियाक़त शामिल हों ।
महाराजा ने इस आर्थिक नाकेबंदी को स्टैंडस्टिल समझौते का उल्लंघन बताते हुए कहा कि ऐसे में हम भारत से मदद लेने के लिए विवश होंगे तो लियाक़त अली ने इसे धमकी मानते हुए एक बाहरी ताक़त से मदद लेने को असल में उससे विलय की ओर बढ़ा क़दम और इस रूप में राज्य की 85 प्रतिशत जनता का उत्पीड़न बताया तथा इसके भयानक परिणामों की चेतावनी देते हुए इसके लिए महाराजा को ज़िम्मेदार बताया । यह पत्राचार अक्टूबर के अंत तक चलता रहा और हर पत्र के साथ भाषा और अधिक तीख़ी, और अधिक दुश्मनाना होती चली गई ।[vi]
अक्टूबर अंत तक क़बायली हमलों की ख़बरें आने लगीं । 28 अक्टूबर को एलन कैम्पबेल जॉनसन ने अपनी डायरी में लिखा –
मैंने उनसे (माउंटबेटन से) यह जानकारी हासिल की कि पिछले शुक्रवार (24 अक्टूबर) की रात वर्मा के विदेश मंत्री के सम्मान में आयोजित एक रात्रिभोज में नेहरू ने पहली बार इस बुरी घटना की जानकारी दी और सूचना दी कि क़बायली सेना की गाड़ियों में भरकर रावलपिंडी रोड तक लाये जा रहे हैं । ऐसा लगता है कि राज्य की सेनाएँ अनुपस्थित हैं और एक बेहद परेशानी वाली हालत विकसित हो रही है । माउंटबेटन शनिवार (25 अक्टूबर) की सुरक्षा समिति की बैठक में शामिल हुए जिसमें जनरल लोखार्ट ने पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय से आया एक टेलीग्राम पढ़कर सुनाया जिसमें कहा गया था कि कोई पाँच हज़ार क़बायलियों ने हमला करके मुज़फ्फ़राबाद और डोमेल पर कब्ज़ा कर लिया है और यह कि बड़ी संख्या में और क़बायलियों के आने की संभावना है । रिपोर्ट बताती हैं कि वे पहले ही श्रीनगर से कोई 35 मील की दूरी पर पहुँच चुकी हैं ।[vii]
यह महाराजा के भारत से सहायता माँगने का भयावह परिणाम था, पाकिस्तान की व्यग्रता थी या कश्मीर के भीतर से उपजे विद्रोह की चरम परिणिति, इसे लेकर इतिहासकारों में पर्याप्त असहमति है । क़बायली हमलों को पाकिस्तान शुरू से ही महाराजा की हिन्दू परस्त नीतियों का स्वाभाविक परिणाम बताते हुए उसमें अपने हाथ होने से इंकार करता रहा है और कश्मीर के भारत से विलय को अनैतिक और ग़ैरक़ानूनी बताता रहा है । कई इतिहासकार इस सैद्धांतिकी को सही मानते हैं । इसे समझने के लिए हम चित्रलेखा ज़ुत्शी को उद्धृत कर सकते हैं –
अक्टूबर के आख़िरी हफ़्ते में पुंछ विद्रोहियों ने आज़ाद कश्मीर के अस्तित्व की घोषणा कर दी जिस पर राज्य की सेना ने पाकिस्तान के साथ लगी अपनी सीमा पर तीन मील लंबा और गहरा नो मैन्स लैंड बना दिया ताकि हिन्दुओं को निकाला जा सके और मुसलमानों की हत्या की जा सके । इन अत्याचारों की प्रतिक्रिया में उत्तर पश्चिम सीमा प्रदेश के क़बायली लो जिनका पुंछ से नज़दीकी संपर्क था, राज्य की सीमाओं में घुसने लगे । ज़्यादा संभावना इस बात की है कि इन्हें पाकिस्तान से कोई आधिकारिक आदेश नहीं मिला था । इसलिए मानीखेज़ तौर पर यह महाराजा के प्राधिकार के ख़िलाफ़ पुंछ के निवासियों का विद्रोह था जिसने आने वाले महीनों में जम्मू और कश्मीर रजवाड़े का विभाजन करवाया, न कि भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ पाकिस्तानी राज्य का आन्दोलन जैसा कि भारत दावा करता है ।
आमतौर पर बेहद सावधानी से जाँच पड़ताल कर स्रोतों को संदर्भित करने वाली ज़ुत्शी अपनी इस निष्कर्षात्मक टिप्पणी में कोई संदर्भ नहीं देतीं । गौर से देखा जाए तो इसके ठीक पहले शेख़ का रिहाई के बाद का पूर्वोद्धृत भाषण संदर्भित करते हुए भी द्विराष्ट्रवाद के उनके विरोध का वह कोई ज़िक्र नहीं करतीं । दो देशों के बीच के एक महत्त्वपूर्ण मसले पर उनका यह निष्कर्ष न केवल उस दौर पर उपलब्ध अकूत तथ्यों का निषेध करता है बल्कि सीधे सीधे पाकिस्तानी आधिकारिक रवैये का स्वीकार है ।
इस पर विस्तार से बात करने से पहले गिलगिट पर थोड़ी सी बात कर लेते हैं । अंग्रेज़ों द्वारा भारत में अपनी सत्ता के हस्तांतरण के साथ ही तकनीकी रूप से 1935 की लीज़ समाप्त हो गई थी और वह कश्मीर के महाराजा के आधिपत्य में आ गया था । 30 जुलाई 1947 को वहाँ अपनी वज़ारत स्थापित करने के लिए ब्रिगेडियर गनसारा सिंह को गिलगिट भेजा गया, लेकिन वहाँ उपस्थित गिलगिट स्काउट और जनता का अधिकांश हिस्सा उनके साथ सहयोग करने को तैयार नहीं था और पाकिस्तान के पक्ष में था । 1 नवम्बर को गिलगिट स्काउट ने गंसारा सिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया और 3 नवम्बर को गिलगिट स्काउट के कमांडर मेज़र ब्राउन और उनके सहायक कैप्टन मैथेसन ने वह क्षेत्र पाकिस्तान को देने का निर्णय लिया । अगले ही दिन पाकिस्तान का झंडा फहरा दिया गया और दो हफ्ते बाद पाकिस्तान सरकार का पोलिटिकल एजेंट वहाँ पहुँचा और इस तरह गिलगिट पाकिस्तान का हिस्सा बन गया ।[ix]
क़बायली हमले में पाकिस्तानी अधिकारियों के शामिल होने के बहुत स्पष्ट सबूत उपलब्ध हैं । मेज़र जनरल अकबर ख़ान, जिन्हे इस योजना में हज़ार साल पहले स्पेन की सेनाओं के ख़िलाफ़ लड़ने वाले तारिक़ के नाम पर जनरल तारिक़ का कोड नाम दिया गया था, बताते हैं–
बँटवारे के कुछ हफ़्तों बाद मुझे लियाक़त अली ख़ान के कहने पर मियाँ इफ्तिखारुद्दीन ने कश्मीर पर प्लान ऑफ़ एक्शन तैयार करने के लिए बुलाया । मैंने पाया कि सेना के पास पुलिस के लिए 4000 राइफ़लें पड़ी हैं । अगर ये स्थानीय लोगों को दी जा सकें तो उचित स्थानों पर कश्मीर में एक सैन्य विद्रोह शुरू किया जा सकता है । इस आधार पर मैंने एक योजना तैयार की और मियाँ इफ्तिखारुद्दीन को सौंप दी । मुझे लियाक़त अली ख़ान द्वारा लाहौर में एक बैठक में बुलाया गया जहाँ योजना को मंज़ूरी दी गई, ज़िम्मेदारियाँ बाँटी गईं और आदेश दिए गए । यह सारी बात सेना से गोपनीय रखी गई ।[x]
ब्रिटिश पत्रकार एच वी हड्सन लिखते हैं –
हमले का समय बहुत योजनाबद्ध तरीक़े से तय किया गया था ताकि जाड़ों में भारत के लिए सुरक्षा का इंतज़ाम मुश्किल हो जाए ।महाराजा के ज़यादातर सैनिक और पुलिस पुंछ विद्रोह चलते उलझे हुए थे तो बर्फ़बारी के पहले ही हमलावरों के केन्द्रीय घाटी पर कब्ज़ा कर लेने की सम्भावना थी तो हिन्दुस्तान के लिए पूर्वी पंजाब से होकर आने वाले रास्ते के बर्फ़बारी से बंद हो जाने के पहले सेनाएँ जुटा पाना बेहद मुश्किल होता ।[xi]
तथ्यों के अम्बार लगाए जा सकते हैं । अकबर ख़ान ने अपनी किताब “रेडर्स इन कश्मीर” में पूरी योजना का तफ़सील से विवरण दिया है जहाँ वह बताते हैं कि लियाक़त अली ख़ान ने कहा था कि किसी भी तरह इसे कम से कम तीन महीने तक खींचा जाए । आर्मी पब्लिशर्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक से क़बायली हमले में पाकिस्तान की भूमिका से सम्बन्धित कई राज़ खुलते हैं । पाकिस्तानी सेना के ही एक और अधिकारी मेज़र (सेवानिवृत्त ) आग़ा हुमायूं अमीन “द 1947-48 कश्मीर वार : द वार ऑफ़ लॉस्ट अपार्चुनिटीज़” में न केवल इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं बल्कि पाकिस्तानी सेना के हाथ को स्पष्ट मानते हुए उन ग़लतियों की विवेचना करते हैं जिसकी वज़ह से इस कार्यवाही में पाकिस्तान सफल नहीं हो पाया । तत्कालीन अविभाजित भारतीय सेना के मेज़र ओ. एस. कलकट ने, जो तब पाकिस्तान में सेना की एक ब्रिगेड में उच्च पद पर थे और सेना के विभाजन के बाद पाकिस्तानी सेना को दिए गए थे, लिखा है कि युद्ध में हताहत और गिरफ़्तार हुए क़बायलियों के पास से पाकिस्तानी सेना द्वारा उपलब्ध कराये गए हथियार और अन्य साज़-ओ-सामान मिले । हर लश्कर को नियमित पाकिस्तानी सेना से एक मेज़र, एक कैप्टन और दस जूनियर कमीशंड ऑफिशर दिए गए थे । इनका चुनाव अक्सर पठानों में से किया जाता था और वे क़बायलियों जैसे ही कपड़े पहनते थे । क़बायलियों के लश्कर को यातायात के लिए लॉरियों और पेट्रोल की व्यवस्था भी पाकिस्तान ने की थी । उन्होंने यह भी बताया है कि 21 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान की सातवीं इन्फेंट्री डिविजन को मुरी एटबाबाद के पास केन्द्रित किया है । उसे जम्मू और कश्मीर पर हमला करने के लिए तैयार रहने को कहा गया था । एक दूसरी डिविजन को सियालकोट में सुरक्षित रखा गया था ।[xii] लन्दन की पत्रिका “न्यू स्टेट्समैन और नेशन” के संवाददाता किंग्सले मार्टिन ने 20 फ़रवरी 1948 को भेजे गए डिस्पैच में लिखा – इस बात पर शक़ करने की कोई संभावना नहीं है कि अगर भारत ने हस्तक्षेप नहीं किया होता तो श्रीनगर और कश्मीर की ख़ूबसूरत घाटी अब एक बर्बाद और बदनुमा खंडहर बन जाती । न ही इस बात पर कोई सवाल उठाया जा सकता है कि क़बायलियों को बढ़ावा और सहायता पाकिस्तान द्वारा उपलब्ध कराई गई थी ।” न्यूयार्क टाइम्स के रॉबर्ट ट्राम्बुल को दिए गए एक साक्षात्कार में उस दौर में आज़ाद कश्मीर की सेना का हिस्सा रहे एक अमें रिकी रसेल के हाईट जूनियर ने बताया- “ पाकिस्तान सेना के लोग आज़ाद कश्मीर के रेडियो को संचालित कर रहे थे, अपने पाकिस्तानी सेना के रिसीवर से सन्देश भेज और ग्रहण कर रहे थे, पाकिस्तान में आज़ाद कश्मीर के कैम्प की व्यवस्था कर रहे थे और पेट्रोल, कारतूस, भोजन और कैम्प की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति कर रहे थे जो सेना से “ग़ायब” दिखाकर लश्करों को उपलब्ध कराई जा रही थीं । मम्दौत के नवाब द्वारा “कश्मीर फंड” के उपयोग को लेकर भी शक़ की स्थितियाँ हैं । जनता को 1950 की गर्मियों तक इस फंड के बारे में कुछ नहीं पता था ।[xiii] पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल गुल हसन ख़ान, जो उस समय पाकिस्तानी सेना के कैप्टन और जिन्ना के एडीसी रहे, 1993 में प्रकाशित अपने संस्मरण में लिखते हैं – “क़ायदे आज़म ने अपनी सूझबूझ से 27 अक्टूबर, 1947 को कराची से लाहौर जाने का निर्णय लिया । जम्मू और कश्मीर से नज़दीकी के अलावा लाहौर से वह प्रधानमंत्री लियाक़त अली के सम्पर्क में रह सकते थे जो उस समय रक्षा मंत्री भी थे । पंजाब के राज्यपाल सर फ्रेंसिस मंडे और प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में क़ायदे आज़म ने नियमित सेना द्वारा कश्मीर पर कब्ज़े की अपनी योजना बताई थी ।[xiv] और 1997 में जिन्ना पर आयोजित बीबीसी के एक टेलीविजन कार्यक्रम में शौक़त हयात ख़ान के इस दावे के बाद कि “क़बायलियों के हमले की योजना को ख़ुद क़ायदे आज़म ने संस्तुत किया था”[xv], 1947-48 का पाकिस्तान द्वारा पेश किया गया सारा वृत्तांत पलट जाता है ।
उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रदेश के तत्कालीन प्रमुख सरदार क़यूम ख़ान और सिंध के स्वास्थ्य मंत्री के बयानों[xvi] के अलावा भी उद्धरणों की भीड़ लगाई जा सकती है । लेकिन यहाँ हम 35 साल बीबीसी के संवाददाता रहे और अब इन्स्टीट्यूट ऑफ़ एशिया पैसिफिक स्टडी के ऑनरेरी प्रोफ़ेसर एंड्रयू व्हाईटहेड द्वारा क़बायली हमले के शिक़ार हुए कैथोलिक मिशन में बच गईं सिस्टर एमिलिया का संस्मरण देख सकते हैं जो न केवल क़बायली हमलों में पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों की उपस्थिति का सबूत देता है बल्कि हमलावरों की हिंसक तथा अमानवीय कार्यवाहियों का भी –
अफ़वाहें थीं कि वे आ रहे हैं । हम सोच रहे थे कि वे हमें कुछ नहीं करेंगे । क्राइस्ट द किंग के भोज के बाद के सोमवार को वे आये । उन्होंने गोलीबारी शुरू कर दी । वे भीतर आये । तब हम अभी काम कर रहे थे । हमारी डिस्पेंसरी चालू थी । हस्पताल में मरीज़ थे । वे हस्पताल के बरामदे में थे । एक वार्ड से दूसरे वार्ड में आ-जा रहे थे । वे चीख़ रहे थे- गोली मारो । मारो । जान से मार दो । उन्होंने एक मरीज़ और एक नर्स को मार दिया था, हस्पताल की एक डॉक्टर के पति को मेरी आँखों के सामने मार दिया गया । एक गोली मदर सुपीरियर को लगी । उन्होंने बची हुई ननों को एक पंक्ति में खड़ा किया और कहा कि हम उन्हें गोली से उड़ा देंगे । लेकिन तभी एक पाकिस्तानी अफ़सर आया जिसे इन ननों ने पढ़ाया था । उसने उनकी भाषा में उनसे कुछ कहा और तब उन्होंने हमें छोड़ दिया । । ।(उनके नेता) हयात ख़ान के आने पर सभी ज़िंदा बचे लोगों- नन, प्रीस्ट, नर्सों, मरीज़ों और स्थानीय ग़ैर मुसलमान नागरिकों को मिशन हास्पीटल के एक छोटे से वार्ड में ठूँस दिया गया था । हम लगभग अस्सी लोग थे जो अगले 11 दिन भूखे प्यासे पड़े रहे ।
इस वार्ड में ब्रिटिश लेफ्टिनेंट कर्नल डी ओ डाइक्स के दो बच्चे भी थे । डाइक्स और उनकी गर्भवती पत्नी की इस हमले में हत्या कर दी गई थी ।[xvii][1]
लेकिन 30 दिसम्बर, 1947 को नेहरू को लिखे पत्र पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान कह रहे थे-
जहाँ तक पाकिस्तान सरकार द्वारा हमलावरों की सहायता का सवाल है हम इसे पूरी तरह से नकारते हैं । इसके विपरीत…पाकिस्तान सरकार ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध जैसे इस क़बीलाई आन्दोलन को दबाने की कोशिश की है ।[xviii]
और कश्मीर पर अपना दावा ठोंकने के लिए यह झूठ पाकिस्तान लगातार बोलता रहा है । उस समय की घटनाओं का सबसे बेहतर तरीक़े से समाहार बर्डवुड ने किया है –
कुछ भी हो, मैं कभी नहीं समझ पाया कि इस सवाल (क़बायली आक्रमण में पाकिस्तान की भूमिका) को रहस्य बना देने में क्या बुद्धिमत्ता है…पाकिस्तान में मेरी अपनी जाँच से कुछ निष्कर्ष निकलते हैं । पहली बात यह कि किसी ब्रिटिश अफ़सरों को इसकी कोई जानकारी नहीं दी गई थी । असल में यह एक नीति बनाई गई थी कि उनको अँधेरे में रखा जाए ताकि बाद में शर्मिंदगी न हो…दूसरी यह कि कुछ वरिष्ठ अधिकारी इस अभिप्राय को अच्छी तरह जानते थे और उन्होंने नज़रंदाज़ कर दिया । । ।अंत में यह कि सीमांत प्रदेश के मुख्यमंत्री ने, जिनका कश्मीर से पारिवारिक सम्बन्ध था, इसे अपना आशीर्वाद और अप्रश्नेय समर्थन दिया था, जिसके बिना यह कार्यवाही संभव नहीं होती । ज़ाहिर तौर पर उनका मानना था कि क़बायली हमला कश्मीर को पाकिस्तान से विलय करने पर मज़बूर कर देगा ।[xix]
बर्डवुड सहित लगभग सभी लेखकों ने इस आक्रमण में मुस्लिम लीग की स्पष्ट भूमिका के उदाहरण हैं जो उस समय पाकिस्तान की सत्ताधारी पार्टी ही नहीं बल्कि इकलौती राजनीतिक पार्टी थी ।
सुप्रसिद्ध फोटो-जर्नलिस्ट और भारत विभाजन की गवाह रहीं मार्गारेट बुर्के-व्हाईट ने अपने संस्मरण “हॉफ़ वे टू फ्रीडम” में क़बायली हमलावरों से हुई एक बातचीत का संदर्भ दिया है । वह लिखती हैं –
मैं पिंडी से कश्मीर जाने वाले हाइवे पर नारा लगाते हुए और चीख़ते हुए कई हज़ार पठानो से मिली । उन्होंने सड़क पर दफ्ती का एक बड़ा में हराब बनाया था जिसमें जीत की बात लिखी थी । इसे फूल-मालाओं और हरी पत्तियों से सजाया गया था जिस पर मुस्लिम लीग के झंडे लगे थे । वे मोहमंद क़बीले के अपने सरदार बादशा गुल का इंतज़ार कर रहे थे जो हज़ार लोगों, ट्रकों के एक जत्थे और गोले-बारूद के साथ आने वाले थे । जब मैंने सवाल पूछे तो अपने वरिष्ठ अधिकारियों के विपरीत ये क़बायली यह जानते हुए लगते थे कि हो क्या रहा है ।
मैंने पूछा – क्या आपलोग कश्मीर जा रहे हैं ?
उन्होंने कहा- क्यों नहीं ? हम सब मुसलमान हैं और कश्मीर में अपने मुस्लिम भाइयों की रक्षा के लिए जा रहे हैं ।
कई बार उनकी सहायता इतनी जल्दी पूरी हो जाती थी कि कि बसें और लॉरियाँ एक या दो दिन में ही लूट के माल से भरे हुए लौट आते थे, और फिर और अधिक क़बायलियों के साथ कश्मीर लौटते – हिन्दुओं, मुसलमानों और सिखों को समान रूप से धमकाने तथा “मुक्त” कराने ।[xx]
क़बायली हमलावरों के लूट, हत्या और बलात्कार जैसी बर्बर कार्यवाहियों के क़िस्से इतिहास और संस्मरणों की किताबों में बिखरे पड़े हैं । युद्ध और बन्दूक के बीच पले बढ़े इन अफ़ग़ान क़बीलों का धर्म भले बहुसंख्यक कश्मीरी जनता की ही तरह इस्लाम था लेकिन संस्कृति एकदम अलग । उन्हें इस्लाम और ज़िहाद के नाम पर कश्मीर भेजा गया था चार दिनों में कब्ज़ा करके श्रीनगर में ईद मनाने भेजा गया था और इस उद्देश्य के लिए कोई और नैतिक आदेश उन्हें नहीं दिए गए थे ।
नेतृत्व में भले पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी थे लेकिन सेना में मौज़ूद क़बायली न किसी आधुनिक युद्ध पद्धति से परिचित थे न ही किसी अनुशासन से । शिक्षा से महरूम और मध्ययुगीन सामंती संस्कारों वाले अफ़ग़ान सरदारों की लूट और बर्बरता का एक दौर कश्मीर ने पहले भी झेला था और इस बार भी वह पहले से अलग नहीं था ।
महाराजा की सेना इस हमले को रोकने के लिए कतई पर्याप्त नहीं थी । डोमेल पर जब उनका कब्ज़ा हुआ तो प्रतिरोध लगभग अनुपस्थित था । सेना प्रमुख ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह ने किसी तरह डेढ़-दो सौ सैनिकों के साथ धूमें ल से आक्रमण करने का निश्चय किया लेकिन उनके पहुँचने से पहले हमलावरों ने वहाँ कब्ज़ा कर लिया । गढ़ी के पास वह हमलावरों से घिर गए । वहाँ से किसी तरह निकलकर उन्होंने श्रीनगर को बचाने की आख़िरी कोशिश के रूप में बारामूला में उनका मुक़ाबला करने का निश्चय किया और उरी से उन पर आक्रमण करने का तय किया । उन्होंने उरी के पुल को उड़ा दिया जिससे हमलावरों के लिए श्रीनगर पहुँचना मुश्किल हो जाए । उनका उद्देश्य किसी भी तरह हमलावरों की राह मुश्किल करना था और जब डोगरा सेना पर तीन तरफ़ से हमला हुआ तो वह इस छोटी सी सेना के साथ ग्यारह घंटों तक दुश्मन से लड़ते रहे । अंत नज़दीक पा उन्होंने बाक़ी सेना को लौटने का आदेश दिया तथा ख़ुद दाहिने हाथ और दाहिने पाँव में गोली लगने के बावज़ूद लगातार कवर फायरिंग करते रहे । लेकिन अंततः वह 24 अक्टूबर को रामनगर में घेर लिए गए और दुश्मनों ने उन्हें छलनी कर दिया । उनकी इस वीरता का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया ।[xxi]
राजिंदर सिंह की सूझ बूझ और वीरता से हमलावर 26 अक्टूबर को बारामूला तक ही पहुँच सके लेकिन श्रीनगर अब केवल 35 मील दूर था और पूरी तरह से अरक्षित । अगर वह तुरंत निकलते तो अगले ही दिन श्रीनगर क़बायलियों के हाथ आ गया होता । लेकिन जैसा कि हमने मार्गारेटा बुर्के-व्हाईट के उद्धरण में हमने देखा कश्मीर को पाकिस्तान के लिए मुक्त कराना उनका इकलौता उद्देश्य नहीं था । लालच उससे भी बड़ा उद्देश्य था । सरदार शौक़त हयात ख़ान ने अपनी किताब ‘द नेशन हैज़ लॉस्ट इट्स सोल” में लिखा है –
मुद्दा था कश्मीर के राज्य ख़ज़ाने में मिला तीन लाख रुपया था । खुर्शीद अनवर ने मूर्खतापूर्ण तरीक़े से तर्क दिया कि यह पैसा पाकिस्तान सरकार का है जबकि क़बायलियों का यह तर्क सही था कि उस माल पर उनका हक़ था । एक बार जब यह मुद्दा हल हो गया तो क़बायलियों ने, जिन्हें समय का कोई बोध नहीं था, इस बात पर बज़िद हो गए कि ईद का त्यौहार ख़त्म हुए बिना आगे नहीं बढ़ेंगे । अगले तीन दिन वे हिले भी नहीं (बारामूला जैसे महत्त्वपूर्ण शहर पर हमले के बाद) । उन्होंने स्थानीय लोगों को लूटना और बारामूला के एक कान्वेंट की ननों के लॉकेट तथा बालियाँ काटनी शुरू कर दीं । आगे बढ़ने और श्रीनगर एयरपोर्ट पर कब्ज़ा करने की जगह इन पठानों ने बाज़ारों को लूटना शुरू कर दिया और क़ीमती समय नष्ट कर दिया । तब तक भारतीय कुमुक हवाई रास्ते से श्रीनगर आ गई…हमने अपनी ख़ुद की ग़लतियों से कश्मीर खो दिया ।[xxii]
ये तीन-चार दिन श्रीनगर से लेकर दिल्ली तक में हलचल मचाने वाले दिन थे । एक तरफ़ श्रीनगर और दूसरे इलाक़ों में नेशनल कॉन्फ्रेंस की जन मिलिशिया लोगों की सहायता से क़बायली हमले का प्रतिकार करने की कोशिश कर रही थी तो दूसरी तरफ़ महाराजा, में हर चंद महाजन, माउंटबेटन और नेहरू इन स्थितियों से जूझने की राहें तलाश रहे थे । जहाँ महाराजा के लिए अपने लोगों के साथ-साथ अपनी सुरक्षा महत्त्वपूर्ण थी वहीं भारत सरकार के लिए कश्मीर की महत्त्वपूर्ण सामरिक स्थिति को देखते हुए उसे हमलावरों के हाथ जाने देना देश की सुरक्षा के लिए एक बड़ा ख़तरा था । 1948 में जारी श्वेतपत्र में कहा गया है –
कश्मीर की उत्तरी सीमाएं, जैसा कि आप जानते हैं चीन, अफ़ग़ानिस्तान और रूस से मिलती हैं । कश्मीर की सुरक्षा, जिसे निश्चित रूप से उसकी आंतरिक स्थिरता और शान्ति पर ही निर्भर होना चाहिए, भारत की सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण है ख़ासतौर पर तब जब कश्मीर की दक्षिणी सीमा और भारत की सीमा साझा है । इसलिए कश्मीर की सहायता भारत के राष्ट्रीय हितों के अनुरूप है ।[xxiii]
उधर अब महाराजा के सामने अब भारत से सहायता माँगने के अलावा कोई विकल्प नहीं था । शेख़ अब्दुल्ला इन परिस्थितियों का सम्यक समाहार करते हैं-
विलय के सवाल पर महाराजा एक स्वतंत्र कश्मीर चाहते थे । विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दिए जाने से पहले उन्होंने माउंटबेटन को लिखा था कि कश्मीर की अवस्थिति और जनसंख्या के संघटन को देखते हुए वह आज़ादी चाहते हैं । लेकिन कश्मीर पर हमले के पाकिस्तान के अदूरदर्शी क़दम के चलते उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा । उनके पास भारत से विलय करने और सैन्य सहायता माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था ।[xxiv]
यहाँ यह ज़िक्र कर देना भी प्रासंगिक होगा कि जब क़बीलाई हमले कि ख़बर पाकिस्तान पहुँची तो पाकिस्तान टाइम्स के संपादक और सुप्रसिद्ध प्रगतिशील शायर फैज़ अहमद फैज़ ने लिखा –
हम देख सकते थे कि सब खो दिया गया है…यहाँ कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की सारी संभावना ख़त्म हो गई ।”[xxv]
द वायर से साभार
माउंटबेटन इस बात को लेकर मुतमइन थे कि सैन्य सहायता भेजने के पहले महाराजा को विलय पत्र पर हस्ताक्षर करना पड़ेगा । उनका मानना था कि तटस्थता की स्थिति में भारत के पास सेना भेजने का कोई अधिकार नहीं है और ऐसा करने पर पाकिस्तान भी सेना भेज सकता है जिसका नतीज़ा केवल युद्ध होगा । नेहरू भी इस बात से सहमत थे ।[xxvi] 24 अक्टूबर को डिफेन्स कमेटी की महत्त्वपूर्ण बैठक के बाद वी पी मेनन को सैम मानेकशा और विंग कमांडर दीवान के साथ हालात का जायज़ा लेने श्रीनगर भेजा गया । अगले दिन महाराजा को उन्होंने भारत सरकार के रुख के बारे में बताया और लौट कर सूचना दी कि अगर तुरंत सेना न भेजी गई तो श्रीनगर को बचाना संभव नहीं होगा । 26 अक्टूबर को डिफेन्स कमेटी की बैठक में हवाई जहाज से सेना और हथियार भेजने का निश्चय किया गया । उसी दिन मेनन को फिर से श्रीनगर भेजा गया जहाँ से वह महाराजा हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षरित विलय पत्र तथा सेना और हथियारों के लिए औपचारिक अनुरोध लेकर लौटे । नेहरू ने लिखा-
मेरी सरकार भारतीय अधिराज्य में कश्मीर राज्य के विलय को स्वीकार करती है । अपनी इस नीति के अनुरूप कि अगर किसी राज्य में विलय के मामले में कोई विवाद हो तो विलय का सवाल राज्य की जनता की इच्छा के अनुरूप हल किया जाएगा । यह मेरी सरकार की इच्छा है कि जैसे ही क़ानून व्यवस्था लागू हो जाती है और कश्मीर से आक्रमणकारी हट जाते हैं राज्य के विलय का सवाल जनमत से सुलझा लिया जाना चाहिए ।[xxvii]
द वायर से साभार
मेनन की सलाह पर 26 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह श्रीनगर से जम्मू आ गए ।[3] अपने साथ वह 48 मिलेट्री ट्रकों में अपने सारे क़ीमती सामान ले आये जिसमें हीरे-जवाहरात से लेकर पेंटिंग्स और कालीन-गलीचे सब शामिल थे । यही नहीं, उस समय जब क़बायली हमले का सामना करने के लिए गाड़ियों की लगातार ज़रूरत थी वह अपने साथ कश्मीर का पेट्रोल का सारा कोटा लेते आये थे ।[xxix] इसी दिन उन्होंने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए ।[4] इस पत्र में भारत के साथ विलय की बात थी और साथ में हालात सामान्य होने पर इसे जनता की इच्छा के अनुरूप परिणित करने की बात थी । 1846 में गुलाब सिंह के जम्मू से श्रीनगर जाने के साथ हुआ डोगरा वंश का सफ़र इस वापसी के साथ अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँच गया । शायद उन्हें एहसास था कि अब लौटकर श्रीनगर में शासक की तरह आना नहीं होगा इसलिए वह अपने साथ परिवार, रिश्तेदारों, धन-संपत्ति और क़ीमती साज़-ओ-सामान लेकर चले थे । वह फिर कभी लौटकर श्रीनगर नहीं गए और जब 20 जून 1949 को उन्हें सत्ता से औपचारिक रूप से बेदख़ल कर दिया गया तो वह बम्बई चले गए जहाँ उनके ढेरों यार-दोस्त और पसंदीदा रेसकोर्स था । श्रीनगर छोड़ने से पहले महाराजा ने एक अंतरिम सरकार बना कर शेख़ अब्दुल्ला को उसकी कमान सौंप दी थी[xxx] हालाँकि महाजन अब भी कश्मीर के प्रधानमंत्री थे लेकिन शेख़ अब्दुल्ला को प्रशासन का महानिदेशक बनाया गयाऔर इस तरह प्रशासन की पूरी ज़िम्मेदारी उन पर ही थी ।[xxxi]बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने श्रीनगर शहर को बचाने की कोशिशें जारी रखीं । सेना में शामिल होने लायक़ न माने जाने वाली कश्मीरी कौम के पुरुष, महिलाओं, बच्चों और बुज़ुर्गों ने जिस हिम्मत और बहादुरी से क़बायली हमलावरों को श्रीनगर पहुँचने से रोकने के लिए संघर्ष किया उसे 19 वर्षीय मीर मक़बूल शेरवानी की शहादत की दास्तान से समझा जा सकता है । मार्गारेट बुर्के-व्हाईट लिखती हैं –
बारामूला में क़स्बे के निवासियों ने मुझे एक युवा दुकानदार के बारे में बताया जिसने धार्मिक सहिष्णुता के अपने विश्वास के लिए क़ुर्बानी दी थी । उसकी लगभग शहादत कान्वेंट की दीवारों के साए में हुई और श्रद्धालु कश्मीरियों की नज़र में वह तेज़ी से संत का दर्ज़ा हासिल कर रहे थे ।
मीर मक़बूल शेरवानी लोकतांत्रिक आन्दोलन में शेख़ अब्दुल्ला के साथी रहे थे और अब्दुल्ला की तरह उन्होंने भी जनता के अधिकारों के संघर्ष के लिए हिन्दू मुस्लिम एकता की ज़रूरत पर बल दिया था ।
क़सबे के लोगों ने मुझे जो जानकारी दी उसके अनुसार वह निश्चित रूप से रॉबिनहुड जैसे होने चाहिए जिसने करों की ऊँची दर न अदा कर पाने वाले किसानों की लड़ाई लड़ी, किसी ग़रीब को पीटती पुलिस से भिड़ गए और उनके शोषण के ख़िलाफ़ जनता के संघर्ष संगठित किये ।
जब हमलावरों ने कश्मीर पर हमला किया और वहाँ के लोगों को आतंकित कर दिया तो शेरवानी ने, जिसे घाटी के हर गली कूचे के बारे में पता था, परदे के पीछे काम करना शुरू किया और भारतीय सेना तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस की मिलिशिया की मदद का भरोसा दिलाकर गाँव के लोगों का मनोबल बढ़ाते हुए उन्हें धर्म से ऊपर उठकर एकताबद्ध तरीक़े से प्रतिकार करने के लिए प्रेरित किया । तीन बार उसने चतुराई से फैलाई गई अफ़वाहों के सहारे प्रलोभन देकर भारतीय सेना के हाथ पड़वा दिया लेकिन चौथी बार वह विफल हुए और पकड़े गए ।
क़बायली उन्हें क़स्बे के चौराहे पर राइफल की बटों से पीटते हुए एक सेब की दुकान के अहाते में ले गए । लोगों के बीच शेरवानी की लोकप्रियता से परिचित हमलावरों ने उसे सार्वजनिक रूप से यह कहने के लिए कहा कि पाकिस्तान ही मुसलमानों के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प है । जब उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया तो उन्हें रस्सियों से मारा गया, उनके हाथ दोनों तरफ़ क्रॉस की तरह फैले थे ।
क़बायलियों ने इसके बाद जो किया वह आश्चर्यजनक चीज़ थी । मैं नहीं जानती कि इन बर्बर ख़ानाबदोशों ने ऐसी चीज़ कैसे सोच ली, संभव है उन्हें यह ठीक ऊपर की पहाड़ी पर स्थित सेंट जोसेफ़ के चैपल में लगी ईसामसीह की प्रतिमा को देखकर सूझा हो । उन्होंने शेरवानी के हाथ के पंजों पर कीलें ठोंक दीं और उसके माथे पर टिन के एक टुकड़े पर यह लिखकर चिपका दिया कि ‘एक ग़द्दार की सज़ा मौत है ।’
एक बार फिर शेरवानी चीख़े – ‘हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद ज़िन्दाबाद’ और चौदह क़बायलियों ने उसकी देह में गोलियाँ उतार दीं ।[xxxii]
शेरवानी कश्मीर में एक नायक की तरह प्रतिष्ठित हुए । भारतीय सेना हर साल उनकी वीरता को याद करती है । उनके नाम से बारामूला में एक में मोरियल हॉल बनवाया गया और फिल्म्स डिविजन ने उन पर एक वृत्तचित्र भी बनाया है । मुल्कराज आनंद ने उन पर आधारित एक उपन्यास लिखा है – डेथ ऑफ़ अ हीरो, जो 1955 में प्रकाशित हुआ । ऐसा ही एक क़िस्सा बारामूला के मास्टर अब्दुल अजीज़ आ है । जब क़बायलियों ने ग़ैर मुस्लिम औरतों का बलात्कार करने की कोशिश की तो अब्दुल अजीज़ ने क़ुरान हाथ में लेकर क़सम खाई कि उनके जीते जी कोई उन औरतों को छू भी नहीं पायेगा । हत्यारों ने अंततः उन्हें भी मार डाला ।[xxxiii]
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स्रोत संदर्भ
[1]इस घटना का ज़िक्र मार्गारेट बुर्के-व्हाईट ने भी ज़रा अलग तरीके से किया है. (देखें पेज़ 160-61, हाफ़ वे टू फ्रीडम)
[2]सर शाहनवाज़ भुट्टो ने बाद में पाकिस्तान की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाई. उनके बेटे जुल्फिकार अली भुट्टो और पोती बेनज़ीर भुट्टो, दोनों ही आगे चलकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने.
[3]अक्सर हरि सिंह के श्रीनगर से पलायन को लेकर बहुत लानत मलामत की जाती है. लेकिन विक्टोरिया स्कोफील्ड ने महाराजा के एडीसी दीवान सिंह के हवाले से लिखा है कि उन्हें मेनन ने कहा “श्रीनगर में आपका रहना मूर्खतापूर्ण होगा जब हमलावर इतने क़रीब हैं. वे कब्ज़ा कर सकते हैं और आपसे कोई भी बयान दिलवा सकते हैं” इसलिए राजा ने श्रीनगर छोड़कर जम्मू जाना तय किया ( पेज़, 54, कश्मीर इन कान्फ्लिक्ट)
[4]इस तारीख़ को लेकर काफ़ी विवाद है. पाकिस्तान यह कहता रहा है कि विलय पत्र पर हस्ताक्षर 26 अक्टूबर को नहीं हुए थे इसलिए 27 का भारतीय सेना की कार्यवाही अवैधानिक थी जबकि भारत का दावा है कि इसी दिन महाराजा ने मेनन को विलय पत्र हस्ताक्षर करके सौंप दिया था. पाठक स्कोफील्ड या एलिएस्टर लैम्ब की पूर्वोद्धरित पुस्तकें पढ़ सकते हैं.
[i]देखें, पेज़ 147-48, फ्रीडम स्ट्रगल इन कश्मीर, ऍफ़ एम हसनैन, रीमा पब्लिशिंग हाउस, 1988, दिल्ली
[ii]देखें, पेज़ 86, फ्लेम्स ऑफ़ चिनार, शेख़ अब्दुल्ला (अनुवाद – खुशवंत सिंह), पेंगुइन- दिल्ली- 1993
[iii]देखें, पेज़ 44, कश्मीर इन कांफ्लिक्ट : इण्डिया, पाकिस्तान एंड द अनएंडिंग वार, विक्टोरिया स्कोफील्ड, आई बी टारिस एंड कम्पनी लिमिटेड, लन्दन- 2003
[iv]देखें, पेज़ 269-71, लुकिंग बैक, मेहर चंद महाजन, एशिया पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली-1963
[v]देखें, पेज़ 48, टू नेशंस एंड कश्मीर, लॉर्ड वुडबर्ड, रॉबर्ट हेल लिमिटेड, लन्दन – 1956
[vi]देखें, पेज़ 126-27, कश्मीर : अ डिस्प्यूटेड लेगेसी, एलिएस्टर लैम्ब, 1846-90, रॉक्सफोर्ड बुक्स, हर्टफोर्डशायर- 1991
[vii]देखें, पेज़ 261-62, मिशन विथ माउंटबेटन, एलन कैम्पबेल जॉनसन, जैको पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली -1951
[viii]देखें, देखें, पेज़ 306, चित्रलेखा जुत्शी, लेंगवेंज ऑफ़ बिलाँगिंग : इस्लाम, रीजनल आइडेंटिटी एंड मेकिंग ऑफ़ कश्मीर, परमानेंट ब्लैक, दूसरा संस्करण- 2015
[ix]देखें, पेज़ 118, कश्मीर : अ डिस्प्यूटेड लेगेसी, एलिएस्टर लैम्ब, 1846-90, रॉक्सफोर्ड बुक्स, हर्टफोर्डशायर- 1991
[x]देखिये कराची से प्रकाशित डिफेन्स जर्नल के जून-जुलाई 1984 के अंक में पेज़ 69 पर प्रकाशित “इंटरव्यू विथ मेजर जनरल अकबर खान”, ब्रिगेडियर(सेवानिवृत्त) ए आर सिद्दीकी
[xi]देखें, पेज़ 446, द ग्रेट डिवाइड : ब्रिटेन-इण्डिया-पाकिस्तान, एच वी हडसन, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, कराची -1969
[xii]देखें, पेज़ 40-42, द फॉर फ्लंग फ्रंटियर्स, अलाइड पब्लिशर्स, नई दिल्ली – 1983
[xiii]देखें, पेज़ 54, टू नेशंस एंड कश्मीर, लॉर्ड वुडबर्ड, रॉबर्ट हेल लिमिटेड, लन्दन – 1956
[xiv]देखें, पेज़ 119, मेमायर्स, लेफ्टिनेंट जनरल गुल हसन खान, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, कराची-1993
[xv]देखें, पेज़ 39, वार एंड डिप्लोमेसी इन कश्मीर : 1947-48, दूसरा संस्करण, सेज़ क्लासिक्स-2014
[xvi]देखें, पेज़ 108, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर,रोली बुक्स, छठां संस्करण, दिल्ली – 2011
[xvii]देखें, पेज़ 3, अ मिशन इन कश्मीर, एंड्रयू व्हाईटहेड, वाइकिंग-2007
[xviii]देखें, पेज़ 54, टू नेशंस एंड कश्मीर, लॉर्ड वुडबर्ड, रॉबर्ट हेल लिमिटेड, लन्दन – 1956
[xix]देखें, वही 54-55
[xx]देखें, पेज़ 161, हॉफवे टू फ्रीडम, मार्गारेटा बुर्के-व्हाईट, एशिया पब्लिशिंग हाउस, बाम्बे-1949
[xxi]देखें, पेज़ 105-07, कश्मीर : बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, रोली बुक्स, छठां संस्करण, दिल्ली – 2011
[xxii]यहाँ पी एल डी पारिमू की पूर्वोद्धरित किताब से (पेज़ संख्या 55)
[xxiii]देखें, पेज़ 40, क्राइसिस इन कश्मीर, एलिएस्टर लैम्ब, रॉट्लेज़ एंड केगन पाल, लन्दन-1966
[xxiv]देखें, पेज़ 91-92, फ्लेम्स ऑफ़ चिनार, शेख़ अब्दुल्ला, शेख़ अब्दुल्ला (अनुवाद – खुशवंत सिंह), पेंगुइन- दिल्ली- 1993
[xxv]देखें, पेज़ 47, कश्मीर इन कांफ्लिक्ट : इण्डिया, पाकिस्तान एंड द अनएंडिंग वार, विक्टोरिया स्कोफील्ड, आई बी टारिस एंड कम्पनी लिमिटेड, लन्दन- 2003
[xxvi]देखें, पेज़ 263, मिशन विथ माउंटबेटन, एलन कैम्पबेल जॉनसन, जैको पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली -1951
[xxvii]देखें, पेज़ 58, टू नेशंस एंड कश्मीर, लॉर्ड वुडबर्ड, रॉबर्ट हेल लिमिटेड, लन्दन – 1956
[xxviii]देखें, पेज़ 19-33, वार एंड डिप्लोमेसी इन कश्मीर : 1947-48, सी दासगुप्ता, सेज पब्लिकेशन, दूसरा संस्करण, दिल्ली-2014
[xxix]देखें, पेज़ …, हॉफवे टू फ्रीडम, मार्गारेटा बुर्के-व्हाईट, एशिया पब्लिशिंग हाउस, बाम्बे-1949
[xxx]देखें, पेज़ 54, कश्मीर इन कांफ्लिक्ट : इण्डिया, पाकिस्तान एंड द अनएंडिंग वार, विक्टोरिया स्कोफील्ड, आई बी टारिस एंड कम्पनी लिमिटेड, लन्दन- 2003
[xxxi]देखें, पेज़ 97, फ्लेम्स ऑफ़ चिनार, शेख़ अब्दुल्ला (अनुवाद – खुशवंत सिंह), पेंगुइन- दिल्ली- 1993
[xxxii]देखें, पेज़ 163-64, हॉफवे टू फ्रीडम, मार्गारेटा बुर्के-व्हाईट, एशिया पब्लिशिंग हाउस, बाम्बे-1949
[xxxiii]देखें, पेज़ 80, जम्मू एंड कश्मीर : अ विक्टिम, दया सागर, ओसेन बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली-2015
© ASHOK KUMAR PANDEY /// Idea, Work & Code : AMI TESH