जवाहर अभी हैरो में पढ़ ही रहे थे तो मोतीलालजी और स्वरूपरानी जी को हर भारतीय माता-पिता की तरह उनकी शादी की चिंता सताने लगी. हालाँकि मोतीलाल कम उम्र में शादी के समर्थकों में से नहीं थे लेकिन चाहते थे कि सगाई जल्द से जल्द हो जाए. स्वरूपरानी सुन्दर बहू चाहती थीं और जवाहर सुन्दरता के साथ-साथ पढ़ाई-लिखाई भी. उन दिनों कश्मीरी पंडित लड़कियों में पढ़ा-लिखा मिलना आसान न था. अंततः दिल्ली के व्यापारी पंडित जवाहरमल कौल की बिटिया कमला कौल माँ-बाप को पसंद आईं और जवाहर ने हामी भर दी.
शादी के दिन जवाहर और कमला (Photo by Keystone/Getty Images)
8 फरवरी, 1916 को बसंत पंचमी के दिन मोतीलाल नेहरू एक स्पेशल ट्रेन से अपने बेटे की बरात लेकर दिल्ली पहुँचे और शादी के बाद हफ़्ते भर दिल्ली में सेलिब्रेशन चलता रहा. इकलौते लड़के की शादी उस घर में वर्षों बाद आई वह ख़ुशी थी जिसका सबको इंतज़ार था. कानपुर में जूनियर की तरह काम शुरू करके मोतीलाल नेहरू ने इलाहाबाद में जो मकाम पाया था, जवाहर उसके वारिस थे. दुल्हन को लेकर बरात इलाहाबाद लौटी तो वहाँ भी हफ़्तों पार्टियाँ चलती रहीं. गर्मियों में पूरा परिवार कश्मीर गया. 1917 में कमला नेहरू ने एक लड़की को जन्म दिया और वृद्ध मोतीलाल का घर इंदिरा की किलकारियों से गूँज उठा.[1]
इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद का यही समय था जब गाँधी के नेत्तृत्व में कांग्रेस ने अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष तेज़ किया और मोतीलाल तथा जवाहरलाल दोनों पूरी ऊर्जा से इसमें शामिल हुए. रौलेट एक्ट के ख़िलाफ़ कांग्रेस ने सत्याग्रह का ऐलान किया तो जालियाँवाला बाग़ में सैकड़ों निहत्थे लोगों को मार दिया गया. आन्दोलन दबने की जगह और तेज़ हो गया. मार्शल लॉ वापस होने के बाद पंजाब में राहत और साक्ष्य इकट्ठा करने का काम शुरू हुआ तो पंडित मदनमोहन मालवीय, स्वामी श्रद्धानन्द और चितरंजन दास के साथ युवा नेहरू भी उसमें शामिल हो गये. इन्हीं दिनों (1919 के अंत में) पंजाब से लौटते हुए नेहरू उसी कोच में थे जिसमें जनरल डायर और उसके साथी. पूरी रात नेहरू ने उन्हें जालियाँवाला बाग़ के कहर के किस्से सुनाते हुए सुना.[2]
1920 में उन्हें एक नया अनुभव हुआ. गर्मियों में स्वरूपरानी और कमला नेहरू, दोनों की तबियत ख़राब हो गई. डॉक्टर ने तुरंत माहौल बदलने की सलाह दी थी. मोतीलाल उस समय एक केस के सिलसिले में आरा में थे. उन्होंने जवाहर से दोनों को लेकर मसूरी जाने को कहा. जवाहर जब मसूरी पहुँचे तो जिस होटल में वह पत्नी, माँ और बहन के साथ रुके उसी में वह अफगान डेलिगेशन भी रुका था जिसकी अंग्रेज़ों के साथ शान्ति वार्ता चल रही थी. स्थानीय एस पी ने नेहरू से एक अंडरटेकिंग लिख के देने को कहा कि वह इस डेलिगेशन के किसी व्यक्ति से न मिलेंगे न बात करेंगे. नेहरू ने ऐसी कोई अंडरटेकिंग देने से मना कर दिया.
ऐसी परिस्थिति में उन्हें मसूरी छोड़ना पड़ा और नेहरू परिवार की व्यवस्था कर इलाहाबाद आ गए जहाँ प्रतापगढ़ के आंदोलित किसानों ने उन्हें उनके गाँव चलकर हाल देखने को कहा. नेहरू उनके साथ चल पड़े और फिर वहीँ रुक गए. गाँवों से नेहरू का यह पहला परिचय था. इसके बाद प्रतापगढ़, रायबरेली और फैजाबाद सहित अनेक किसान आंदोलनों में शामिल हुए.[3]
बैठे हुए (बाएँ से) स्वरूपरानी, मोतीलाल और कमला नेहरू खड़े हुए (बाएँ से) जवाहरलाल, विजयालक्ष्मी, कृष्णा, इंदिरा और आर एस पंडित
इस दौर ने नेहरू परिवार को कितना बदल दिया था इसका प्रमाण 1910 में मोतीलाल के मेहमान रह चुके सरदार निहाल सिंह के 1922 में लिखे संस्मरण से मिलता है – वह (मोतीलाल) अब कोई कोट या वेस्टकोट भी नहीं पहनते थे. घुटनों तक का लंबा खद्दर का कुर्ता और जिन पैरों में सोने की कढ़ाई वाला जूता होता था वे नंगे पाँव थे.[4]
दिसम्बर 1921 में पिता-पुत्र दोनों एकसाथ गिरफ्तार हुए और मुक़दमे के दौरान चार साल की इंदिरा को गोद में लिए मोतीलाल पूरे समय हँसी-मजाक करते रहे. छः-छः महीने की सज़ा दोनों को हुई. ज़ुर्माना पांच-पांच सौ रुपये का था लेकिन सत्याग्रह के नियमों के चलते दोनों ने इंकार किया तो हज़ारों रुपये के कालीन और दूसरे सामान कुर्की में उठा लिए गए.
इसका असर कमला नेहरू पर कैसे नहीं पड़ता? अब वह भी रेशमी छोड़कर खद्दर पहनने लगी थीं और मांसाहार छोड़ दिया था.[5] जब मोतीलाल और जवाहरलाल जेल में थे तो स्वरूपरानी, कमला, कृष्णा और इंदिरा तीसरे दर्जे में बैठकर अहमदाबाद कांग्रेस में हिस्सा लेने गईं. इलाहाबाद में उन्होंने महिलाओं को एकत्र किया और सत्याग्रह में शामिल हुईं. दो बार जेल भी गईं और लौटकर स्वराज भवन के कुछ कमरों को अस्पताल में बदल दिया जहाँ कांग्रेस के चोटिल कार्यकर्ताओं का इलाज़ होता था.
उनकी तबियत बार-बार बिगड़ रही थी. नवम्बर, 1924 में उनकी दूसरी संतान ने जन्म लिया. लेकिन कुछ ही दिनों के भीतर लड़के की मृत्यु हो गई. उनकी तबियत और बिगड़ गई. जांच कराने पर टीबी निकली. नेहरू ने डॉ एम ए अंसारी से सलाह ली तो उन्होंने जेनेवा ले जाने की सलाह दी. पासपोर्ट बनवाने गए तो एकबार फिर अंडरटेकिंग मांगी गई कि यूरोप में रहते हुए वह राजनीतिक आयोजनों में हिस्सा नहीं लेंगे. जवाहरलाल ने फिर मना कर दिया. लेकिन इस बार जब मोतीलालजी ने हस्तक्षेप किया तो पासपोर्ट मिल गया.
मार्च के महीने में जवाहरलाल पत्नी को लेकर जिनेवा पहुँचे. अगले 21 महीने वह वहीँ रहे. बीच में बहन कृष्णा नेहरू भी पहुँच गईं. जिनेवा से उन्हें मोंटाना के एक सेनीटोरियम में ले जाया गया. लेकिन स्वास्थ्य में लाभ बेहद धीमा था. 1
5 मार्च, 1927 को नेहरू ने गाँधी को लिखा – एक साल जैसे एक दिन की तरह बीत गया. सुधार एकदम संतोषजनक नहीं है.
सितम्बर में मोतीलाल वहाँ पहुँचे. फिर पूरा परिवार सोवियत संघ सरकार के बुलावे पर मास्को गया. वहाँ क्रान्ति के दस साल पूरे होने के अवसर पर नेहरू पिता, पत्नी, बेटी और बहन के साथ उपस्थित थे. प्राव्दा (सोवियत संघ के आधिकारिक समाचार पत्र) ने यह ख़बर प्रमुखता से छापी थी. अगले तीन महीने वे इटली, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी में घूमते रहे[6] और दिसम्बर, 1927 में पत्नी और बेटी के साथ भारत लौटे. अब कमला काफी ठीक हो गईं थीं.
1930 में एकबार फिर जवाहरलाल जेल में थे और मोतीलाल को डॉक्टरों ने किसी कार्यवाही में भाग लेने से मना किया था. लेकिन न तो बीमार मोतीलाल, न वृद्ध स्वरूपरानी और न ही कमला नेहरू को कोई आन्दोलन में भाग लेने से रोक सका. बहनों सहित पूरा परिवार असहयोग आन्दोलन में शामिल था ; नन्हीं इंदिरा भी वानर सेना बनाकर सक्रिय थीं.
जून महीने में कमला सास-ससुर के साथ बम्बई गईं. वहाँ आन्दोलनों में शामिल तो हुए लेकिन मोतीलालजी के स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ा. स्वास्थ्यलाभ के लिए वह मसूरी जाना चाहते थे लेकिन उन्हें गिरफ़्तार कर उसी नैनी जेल में भेज दिया गया जहाँ जवाहर पहले से बंद थे. अंग्रेज़ उन्हें बेहतर सुविधा देना चाहते थे लेकिन मोतीलाल ने आग्रह किया कि उन्हें बेटे के साथ रखा जाए.
बीमार पिता की सेवा नेहरू ने अपने हाथ में ले ली. तबियत बिगड़ी तो उन्हें मेडिकल ग्राउंड पर छोड़ने की बात हुई. मोतीलाल ने मना कर दिया. लेकिन सरकार नहीं चाहती थी कि मोतीलाल की मृत्यु जेल में हो और आंदोलन और तेज़ हो. 11 सितम्बर को उन्हें छोड़ दिया गया और तीन दिन बाद उन्हें मसूरी ले जाया गया.
इधर कमला नेहरू की तबियत भी बिगड़ रही थी. पिछले साल दिसंबर में नेहरू उन्हें कलकत्ता ले गए थे और कई डॉक्टर्स को दिखाया था. नेहरू आन्दोलन में उनकी भागीदारी से ख़ुश थे लेकिन जेल से उन्हें लिखा था कि ‘दोपहर की धूप से बचना.’ गाँधी ने भी लिखा था – ‘मैं समझ रहा हूँ कि तुम बहुत मेहनत कर रही हो लेकिन शरीर का ध्यान रखना ज़रूरी है.’
लेकिन वह उत्साह में थीं. देश की जिस आज़ादी के लिए पूरा परिवार लड़ रहा था उसे उन्होंने भी अपना ध्येय बना लिया था. सितम्बर, 1930 में उन्होंने पति को लिखा –
जवाहर, मुझे तुम्हारा पत्र मिला. तुम्हारी रिहाई का दिन पास आ रहा है, लेकिन मुझे शक है कि वे तुम्हें आज़ाद करेंगे. और अगर कर भी दिया तो तुम फिर गिरफ़्तार कर लिए जाओगे…मैं चाहती हूँ तुम्हारी रिहाई से पहले वे मुझे गिरफ़्तार कर लें.[7]
11 अक्टूबर में जवाहर रिहा हुए और 19 अक्टूबर को किसानों की जिला कांफ्रेंस होनी थी इलाहाबाद में. इसी बीच वह कमला को लेकर पिता से मिलने मसूरी गए और 18 को लौट आये. अगले दिन परिवार वहाँ से लौटा तो उसे लेने स्टेशन गए और फिर कमला के साथ एक आमसभा में जहाँ से लौटते हुए घर के सामने जवाहर को गिरफ़्तार कर फिर से नैनी जेल भेज दिया गया.
अब कमान मोतीलाल ने हाथ में ले ली और 16 दिसम्बर को जवाहर दिवस पर कमला नेहरू ने जवाहरलाल का वह पूरा भाषण पढ़ा जिसे अंग्रेज़ सरकार ने ‘राजद्रोही’ कहा था. 1 जनवरी को कमला नेहरू को भी गिरफ़्तार करके लखनऊ जेल भेज दिया गया.[8]
12 जनवरी को जब कांग्रेस के सभी नेताओं को रिहा किया गया तो जवाहर और कमला साथ में घर लौटे.
मोतीलालजी को यह भाग-दौड़ भारी पड़ी थी. 6 फरवरी को उन्होंने अंतिम साँस ली तो गाँधी, जवाहर, कमला सब उनके आसपास थे.
1931 में जवाहर पत्नी और बिटिया के साथ सीलोन (अब कोलम्बो) गए. सात महीनों की इस छुट्टी में कमला का स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ था और दोनों क़रीब भी आये थे. नेहरू लिखते हैं – ऐसा लगता है हमने एकदूसरे को नए तरीके से पा लिया है. पिछले सारे बरस इस नए और क़रीबी रिश्ते की तैयारी में बीते थे.
भारत आकर वह फिर से राजनीति में सक्रिय हो गए. 26 दिसम्बर 1931 को नेहरू फिर गिरफ़्तार कर लिए गए. इस बार ढाई साल की जेल हुई. इस समय तक नेहरू परिवार का हर सदस्य जेल जा चुका था. 6-13 अप्रैल के राष्ट्रीय सप्ताह आन्दोलन में स्वरूपरानी नेहरू भी सड़क पर उतर पड़ीं. पुलिस ने उनके सर पर लाठीचार्ज किया. लहू बहने लगा तो इलाहाबाद में शोर मच गया कि माताजी की हत्या कर दी गई. गुस्साई भीड़ ने पुलिस पर हमला कर दिया. लेकिन वह बच गईं. 16 अप्रैल को उन्होंने बरेली जेल में ज़मीन से छः फीट नीचे की बैरक में बंद जवाहर को लिखा –
बहादुर लड़के की माँ भी उस जैसी ही होती है. यह तो लाठी थी – बन्दूक होती तो भी मैं सीने पर झेलती.
1933 के अगस्त में रिहाई से 12 फरवरी 1934 कि फिर से गिरफ्तारी तक दोनों पूरे वक़्त साथ रहे. दोनों साथ में कलकत्ता गए और वहाँ से शान्तिनिकेतन जाकर गुरुदेव से मिले. इंदिरा का शान्तिनिकेतन में एडमिशन कराया गया. कमला नहीं चाहती थीं कि बिटिया उनके साथ रहे और कहीं यह बीमारी उसे लग जाए.
जुलाई 1934 में कमला नेहरू की बीमारी एकबार फिर उभरी. डॉक्टरों ने कहा कि ख़तरा है. जवाहर को उनके साथ रहने के लिए जेल से छोड़ा गया लेकिन मात्र 11 दिन बाद 24 अगस्त को फिर जेल भेज दिया गया. अंग्रेज़ों ने प्रस्ताव दिया कि अगर वह राजनीति में हिस्सा न लेने का वचन दें तो रिहा कर दिए जाएंगे. इसी शर्त पर सावरकर छूटे थे. लेकिन वह सावरकर नहीं नेहरू थे. कमला खुद इसके लिए तैयार नहीं थीं.[9]
उन्हें भवाली के सेनीटोरियम में ले जाया गया. वहाँ से योरप. मई, 1935 में वह चचेरे भाई डॉक्टर मदन अटल और इंदिरा के साथ ब्लैक फारेस्ट के Badenweiler के लिए निकलीं. इंदिरा को माँ की सेवा के लिए शान्तिनिकेतन छोड़ना पड़ा. गुरुदेव टैगोर ने नेहरू को लिखा –
बहुत भारी हृदय से हम इंदिरा को विदाई दे रहे हैं. हमारे संस्थान के लिए वह एक कीमती एसेट थी. मैंने उसे बहुत क़रीब से देखा है और जिस तरह तुमने उसे पाला है, मुझे गर्व है.
बाद में फ़ीरोज़ भी वहाँ पहुँचे.
2 सितम्बर को योरप से डॉक्टर ने ट्रंक कॉल किया – हालत क्रिटिकल है. 4 सितम्बर को जवाहरलाल को जेल से छुट्टी दी गई और वह सीधे जर्मनी पहुँचे उनके पास. दिसम्बर के मध्य में उन्हें लासाने, स्विट्जरलैंड ले जाया गया. योजना लंबा रुकने की थी. इंदिरा का वहीँ एडमिशन करा दिया गया.
इसी बीच जवाहर को पता चला कि उन्हें कांग्रेस का फिर से लखनऊ सत्र के लिए अध्यक्ष बना दिया गया है और और अगला सेशन अप्रैल में है. उधर जेल की शर्त थी कि टर्म पूरा होने से पहले (जो 28 फरवरी को ख़त्म हो रहा था) लौटे तो गिरफ़्तार कर लिए जाएंगे. उन्होंने 29 फरवरी को लौटना तय किया. कमला और बिटिया के लिए इंतजाम कर दिए गए थे.
लेकिन कमला का अंत आ चुका था. 28 फरवरी, 1936 को जब उन्होंने दम तोड़ा तो जवाहर उनके पास थे.
वहीँ स्विटज़रलैंड में उन्होंने पत्नी का दाह संस्कार किया. लौटे तो राख गंगा में बहा दी लेकिन थोड़ी सी अपने पास रख ली. वह हमेशा उनके पास रही – जेल में, शयन में हर जगह.
जब जवाहरलाल की मृत्यु हुई तो कमला की वह राख उनकी राख के साथ ही प्रवाहित कर दी गई.[10]
संदर्भ
[1] देखें, पेज 128, द नेहरूज़, बी. आर. नन्दा, ऑक्सफ़ोर्ड इंडिया पेपरबैक, (चौथा संस्करण), दिल्ली – 2008
[2] देखें, पेज 64, जवाहरलाल नेहरू : अ बायोग्राफ़ी, फ्रैंक मोरास, जैको बुक्स, (चौथा संस्करण), बम्बई – 2013
[3] देखें, पेज 63-65, एन ऑटोबायोग्राफ़ी, जवाहरलाल नेहरू, पेंग्विन, दिल्ली -2017
[4] देखें, पेज 186, द नेहरूज़, बी. आर. नन्दा, ऑक्सफ़ोर्ड इंडिया पेपरबैक, (चौथा संस्करण), दिल्ली – 2008
[5] देखें,वही, पेज 185
[6] देखें,वही, पेज 258-60
[7] देखें, वही, पेज 336
[8] देखें, पेज 30, नेहरू : द मेकिंग ऑफ़ इंडिया, एम. जे. अकबर, रोली बुक्स, दिल्ली -2002
[9] देखें, वही, पेज 244,
[10] देखें, वही, पेज 245
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