
गाँधी, पटेल और नेहरु : दुष्प्रचार के पार
एक झूठ यह लगातार फैलाया जाता है कि गाँधी ने अपनी हत्या वाले दिन पटेल को बुलाकर कहा था कि आपको इस्तीफा दे देना चाहिए.
गाँधी और पटेल
जो लोग नेहरू के प्रति गाँधी के प्रेम को पटेल के लिए बेईमानी कहते हैं वे भूल जाते हैं कि सरदार का तो राजनैतिक जीवन ही गाँधी ने शुरू करवाया था. डॉ राजेन्द्र प्रसाद और सरदार वल्लभभाई पटेल भारतीय स्वाधीनता संग्राम के ऐसे दो बड़े नेता हैं जो गाँधी से मिलने से पहले अपना पूरा समय वकालत को दे रहे थे. चंपारण आन्दोलन में गाँधी राजेन्द्र बाबू को साथ ले गए थे और उसके बाद उन्हें लगातार सक्रिय होने को प्रोत्साहित किया तो बारडोली आन्दोलन में पटेल सक्रिय हुए और उसके बाद वकालत पीछे छूट गई. गाँधी उन्हें हमेशा ‘सरदार’ कहकर बुलाते थे.
जब कलकत्ता में दंगे रुकवाकर गाँधी दिल्ली लौटे तो उन्हें स्टेशन से लाने सरदार और राजकुमारी अमृत कौर ही गए थे. गाँधी लिखते हैं – हर समय हँसी-मजाक करने वाले सरदार के होठों से भी मुस्कराहट ग़ायब थी. आमतौर पर पटेल की छवि एक कड़े और कड़वे मनुष्य की बनाई जाती है। लेकिन वह उतने ही मज़ाकिया भी थे। गाँधी के साथ उनके सम्बन्ध बेहद सहज थे। एक उदाहरण काफी होगा।
1948 में इस सुबह के कोई महीने भर बाद दिल्ली के गुजराती समाज ने हिन्दू कैलेण्डर से गाँधी का जन्मदिन 11 अक्टूबर को मनाने का निश्चय किया तो उन्हें बताया गया कि इस अवसर पर सामाजिक कार्यों के लिए चंदे की एक रक़म दी जाएगी। पटेल आयोजन के लिए गाँधी को लेने आये तो वह बुरी तरह खांस रहे थे।
पटेल ने मुस्कुरा कर उलाहना दी – ‘एम ढ़ों-ढ़ों करता जवानु सूं जरूर छे?[1] आपकी लालच ऐसी है कि चंदे के लिए तो मृत्युशैया से उठकर चले जाएँगे।’ गाँधी हँस पड़े। आयोजन में जब लोगों ने पटेल से बोलने के लिए कहा तो बोले – ‘चंदा गाँधी जी को और भाषण दूँ मैं? यह कहाँ का न्याय है? बनिए स्वभाव से लालची होते हैं। देखिये यह बुढऊ चन्दा लेने के लिए कैसे स्वस्थ हो गए हैं। अब बिचारे पर दया कीजिये और बोलने की ज़िद न कीजिये।’
गाँधी ने मुस्कुराकर कहा – ‘सरदार फाँसी के तख्ते पर भी हँसने का मौक़ा नहीं छोड़ेंगे।’[2]
दिल्ली मुर्दों का शहर बन गया था
गाँधी को उस रोज़ दिल्ली मुर्दों के शहर जैसा लगा था और जब जवाहर आये तो उन्हें देखकर गाँधी ने कहा – नाराज़ होकर क्या मिलेगा? नेहरू ने जवाब दिया –
मैं ख़ुद से नाराज़ हूँ। हम तो सुरक्षा इंतज़ामात के साथ चलते हैं। शर्म आती है। राशन की दुकानें लूट ली गईं। फल, सब्जियां और किराना मिलना मुश्किल हो गया है। आम आदमी कितना परेशान है। हिन्दू और मुसलमान में कोई फ़र्क न करने वाले डॉ जोशी को एक मुस्लिम घर से हमला करके मार दिया गया जब वह एक मरीज़ को देखने जा रहे थे।[3]
अगले ही दिन से उन्होंने दंगाग्रस्त इलाक़ों और रिफ्यूजी कैम्पों का दौरा शुरू कर दिया[4] और ख़ुद से कहा – जब तक शान्ति स्थापित न हो जाए, मैं यह जगह नहीं छोड़ सकता।[5]
विवाद नहीं संवाद
उस समय पटेल गृहमंत्री थे और दिल्ली की क़ानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी उनकी थी. साथ में देशी रियासतों को भारत में शामिल कराने की एक बड़ी ज़िम्मेदारी थी उनके सर पर जिसके चलते लगातार दौरे करने होते थे. तनाव स्वाभाविक था. ऐसे ही एक क्षण में उन्होंने बैठक में गाँधी के प्रति इतना कड़वा बोला कि उनके आँख में आँसू आ गए. लेकिन न गाँधी का मन बदला न सरदार का. अहमदाबाद जाकर पटेल ने चिट्ठी लिखी थी गाँधी को और इस्तीफ़े का प्रस्ताव दिया था लेकिन जब सरदार पर आरोप लगे तो गाँधी ने कहा –
‘बहुत से मुस्लिम भाई मुझसे कहते हैं जवाहरलालजी अच्छे हैं पर सरदार मुसलमानों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार नहीं करते। ऐसी बातें मुसलमान कहें तो कैसे चलेगा! सरदार और जवाहर मिलकर ही सारी हुकूमत चलाते हैं…मैं जानता हूँ कि कदाचित सरदार के जीभ पर काँटा हो, कड़वाहट हो पर उनके हृदय में कड़वाहट या काँटा बिलकुल नहीं है। हाँ, वे सच्ची बातें किसी से कहने में नहीं डरते और न कहने में चूकते हैं। उन्होंने लखनऊ में कहा कि मुसलमानों को भारत में रहना हो तो ख़ुशी से रह सकते हैं। लेकिन लीगी मुसलमानों का उन्हें कोई भरोसा नहीं। इसमें उन्होंने कुछ अयोग्य कहा ऐसा मैं नहीं मानता।’[6]
उधर सरदार ने बम्बई में कहा –
‘हमारी इज्ज़त बढ़ी जब हमें आज़ादी मिली लेकिन उसके बाद की घटनाओं ने इसे गिरा दिया। अगर आज़ादी पाने के बावजूद गाँधीजी को हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए उपवास करना पड़ रहा है तो यह हम सबके लिए शर्म की बात है। आपने अभी सुना कि लोग चिल्ला रहे हैं कि मुसलमानों को देश से निकाल दिया जाए। ऐसा कहने वाले लोग गुस्से में पागल हो गए हैं। एक पागल भी गुस्से से पगलाए लोगों से बेहतर होता है…उन्हें नहीं पता कि मुसलमानों को देश से बाहर करने से कुछ नहीं मिलने वाला। मैं खुले दिल का आदमी हूँ। हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों से कड़वा बोलता हूँ…कुछ मुसलमान गांधीजी से मेरी शिकायत करने गए…गाँधीजी को मेरा बचाव करना पड़ा। दुःख हुआ मुझे…।[7]
जब बीस जनवरी को मदनलाल पाहवा ने गाँधी की प्रार्थना सभा पर बम फेंका तो पटेल काठियावाड़ के शासकों से बातचीत निपटाकर अहमदाबाद में थे. 23 को वह लौटे. उन्होंने गाँधी की सुरक्षा बढ़ाने का आदेश दिया और 19 वर्दीधारी सिपाहियों के साथ सात पुलिसकर्मियों को सादे वेश में वहाँ सशस्त्र तैनात रहने के निर्देश दिए गए. घनश्यामदास बिड़ला ने जब ‘मेरे घर के हर कोने में’ पुलिस के रहने की शिकायत कर याद दिलाया कि गाँधी इस तरह की अतिरिक्त सुरक्षा व्यवस्था के ख़िलाफ़ रहे हैं तो पटेल ने कहा –
आप क्यों परेशान हैं? यह आपका मामला नहीं है. यह मेरी ज़िम्मेदारी है. अगर मेरी चलती तो बिड़ला हाउस में आने वाले हर आदमी की जाँच करवाता, लेकिन बापू नहीं मानेंगे.
जब शाम को वह गाँधी से मिले तो वही हुआ. इसी समय गाँधी ने उनसे यह भी कहा कि आप और जवाहर में से किसी को भी पद छोड़ने की ज़रूरत नहीं है और माउंटबेटन भी यही चाहते हैं. पटेल ने इस पर और बात करने की बात कही और चूँकि उन्हें 25 तारीख़ को आगरा निकलना था और अब 27 को ही लौटना था तो 30 जनवरी की तारीख़ विस्तृत बातचीत के लिए तय हुई.[8]

गाँधी के अंतिम दर्शन के लिए उमड़े लोग
नेहरू मेरे नेता हैं
30 जनवरी को चार बजे सरदार अपनी बेटी मणिबेन के साथ आये. वह बोलते रहे और गाँधी चरखा चलाते हुए सुनते रहे. साढ़े चार बजे मनुबेन उनका डिनर लेकर आईं. दूध, सब्जियाँ और संतरे की फाँकें. सब सुनने के बाद गाँधी ने वह दुहाराया जो पिछली मुलाक़ात में कहा था – कैबिनेट में पटेल की उपस्थिति अनिवार्य है.
यही बात वह पहले नेहरू से कह चुके थे. नेहरू और पटेल के बीच कोई खाई भारत के लिए विनाशकारी होगी. तय हुआ कि अगले दिन तीनों एकसाथ बैठेंगे. मनुबेन और आभाबेन ठीक पाँच बजे उन्हें प्रार्थना सभा के लिए ले जाने आईं लेकिन दोनों ने कोई ध्यान नहीं दिया. कुछ समय बाद आभाबेन ने कहा – 5.10 हो गए तो दोनों उठे. पटेल घर निकल गए और गाँधी हँसी-मज़ाक करते प्रार्थना सभा के लिए चले.[9]
गाँधी की हत्या की ख़बर पटेल को मिली तो वह बस घर में घुसे ही थे. उलटे पाँव लौटे. कुछ ही मिनट बाद बदहवास नेहरू पहुँचे तो पटेल की गोद में सर रखकर फूट-फूटकर रो पड़े. मनुबेन लिखती हैं – अकेले वे (सरदार) सबको ढाँढस बंधा रहे थे…उस समय मैं किसी काम से बाहर निकली. पंडितजी ने एकदम मुझे पकड़ लिया और क्षणभर भूल गए, कहने लगे, मनु आओ बापू को पूछो, अब कैसे करना है.[10] माउंटबेटन आये तो उन्होंने कहा कि गाँधी जी चाहते थे कि आपदोनों साथ काम करें. नेहरू और पटेल गले लग गए.
2 फरवरी की रात पटेल ने नेहरू को एक पत्र लिखकर गाँधी हत्या की ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़े का पत्र लिखा. लेकिन वह पत्र डिस्पैच होता उसके पहले ही अगले दिन सुबह जवाहरलाल का पत्र उन तक पहुँचा जिसमें उन्होंने अपने लगाव और मित्रता का हवाला देते हुए लिखा था –
बापू की मृत्यु के साथ हर चीज़ बदल गई है और हमें एक अलग और मुश्किल दुनिया का सामना करना होगा…आपके और मेरे बारे में जो लगातार कानाफूसी और अफ़वाहें चल रही हैं, जिनमें हमारे बीच अगर कोई मतभेद हैं भी तो उन्हें बेहद बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जा रहा है, मैं उनसे बेहद दुखी हूँ…हमें इस उत्पात को रोकना होगा.
शायद वल्लभभाई को इसी का इंतज़ार था. उन्होंने तुरंत लिखा –
मुझे यह बात गहरे छू गई है, असल में आपके पत्र के लगाव और स्नेह से आह्लादित हूँ. मैं आप द्वारा बेहद भावपूर्ण ढंग से व्यक्त भावनाओं से पूरी तरह सहमत हूँ…मेरी किस्मत थी कि बापू की मृत्यु के पहले उनसे एक घंटे बात करने का अवसर मिला था मुझे…उनका विचार भी हम दोनों को बांधता है और मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि मैं इसी भाव से अपनी ज़िम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाता रहूँगा.
अगले दिन संविधान सभा में वल्लभभाई ने नेहरू के प्रति अपनी निष्ठा सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित की और उन्हें ‘मेरे नेता’ कहकर संबोधित किया.[11]
असहमतियाँ नहीं ख़त्म हुईं, गाँधी उसके लिए कहते भी नहीं थे, लेकिन जो मनोमालिन्य और दुर्भाव पैदा होने लगा था, वह धुल गया.
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मेरी आने वाली किताब – उसने गाँधी को क्यों मारा से
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संदर्भ स्रोत
[1] गुजराती – ऐसे खों खों करते जाने की क्या ज़रुरत है.
[2] देखें, पेज 5-6, महात्मा गाँधी : पूर्णाहुति, खंड -4, प्यारेलाल, (गुजराती संस्करण, अनुवाद : मणिभाई भ. देसाई). नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद-1971
[3] देखें, वही, पेज 43
[4]देखें, पेज 354-56, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, खंड 96 ( गाँधी आश्रम सेवाग्राम द्वारा प्रकाशित)
[5] देखें, पेज 8, महात्मा गाँधी : पूर्णाहुति, खंड -4, प्यारेलाल, (गुजराती संस्करण, अनुवाद : मणिभाई भ. देसाई). नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद-1971
[6] देखें, वही, पेज 104-105
[7] देखें, वही, पेज 388-89
[8] देखें, पेज 466, पटेल : अ लाइफ, राजमोहन गाँधी, बारहवाँ संस्करण, नवजीवन, अहमदाबाद -2017
[9] देखें, पेज 467, पटेल : अ लाइफ, राजमोहन गाँधी, बारहवाँ संस्करण, नवजीवन, अहमदाबाद -2017
[10] देखें, पेज 249, अंतिम झाँकी, मनुबेन गाँधी, अखिल भारतीय सर्वसेवा संघ, काशी – 1960
[11] देखें, पेज 470, पटेल : अ लाइफ, राजमोहन गाँधी, बारहवाँ संस्करण, नवजीवन, अहमदाबाद -2017
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