दुनिया अब बहुत दिनों तक 2020 के पहले और बाद से जानी जाएगी. कोविड-19 ने इसे हमेशा के लिए बदल दिया है. घर के बाहर ही नहीं भीतर तक. सैकड़ो कविताएँ आईं इस पर लेकिन जिस तरह अमित ने इसे देखा है, शायद ही कोई देख पाया था. लम्बी टिप्पणी कविता के टेस्ट को ख़राब करेगी तो सीधे कविता पढने की गुजारिश करूंगा.
“मैंने दिल से कहा ढूंढ लाना खुशी”…
दिल को कहीं खुशी नहीं मिल रही वह बदहवास भटक रहा है
चारों तरफ़ अंधेरा है और अंधेरा ही हाथ आ रहा है
जितना हथेली में भर रहा हूँ दुगुना अंदर समा रहा है।
कहते हैं सौ साल पहले भी यही हुआ था
गाँव कस्बे उजड़ गये थे
खेत कर लौटते थे पुरखे तो नयी लाशें इंतज़ार करती थीं
पुरखों ने किस्सा सुना था कि तब से सौ साल पहले भी यही हुआ था
वे उजड़ गये अपने पुरखों के गाँव आरोन से करसेना की छांव बस गये
कुलदेवी वहीं रह गयीं
ग्राम देवता वहीं रह गये
खेती चल बसी खेत वहीं रह गये
पुरखों के पुरखे वहीं रह गये
जो पुरखे चल बसे वे पुरखे वहीं रह गये
जो पुरखे उजड़े थे वे यह किस्सा कह गये।
अब बस वह किस्सा रह गया है
मैं उस किस्से में खड़ा हूँ 1919 में खड़ा हूं 2020 में
मेरे होने में पुरखों के डर का एक हिस्सा रह गया है।
मुंबई एक सपना है जो रात को अपनी आँखें खोलता है
उनमें सैंकड़ों जुगनू भरता है
उन जुगनुओं की बित्ता भर रौशनी में लाखों पतंगे राख हो उठने को मचलते हैं
बंटी सोचता रहा जाऊं या न जाऊं श्रमिक स्पेशल प्लेटफ़ॉर्म से छूट गयी
बंटी सोचता रहा जाऊं या न जाऊं बाकी साथी पैदल निकल पड़े गोरखपुर
इरफ़ान खान नहीं रहा,बंटी उसका दीवाना था सपनों में मिलता था उससे
बंटी सोचता रहा जाऊं या न जाऊं दर्शन को वहां अंतिम संस्कार हो गया
सुशांत सिंह राजपूत ने सुसाइड कर ली बंटी बहुत रोया, फैन था
इसको क्या कमी थी सब तो था इसके पास दो दिन का भूखा बंटी सोच रहा था
बंटी भी हीरो बनने आया था सोचता रहा बनूँ या न बनूँ मजदूर बन गया
बंटी सोच रहा था मैं सुशांत होता तो सोचता ही रह जाता और मर भी नहीं पाता।
चाचा सांस नहीं ले पा रहे
चाचा के फेंफड़े जकड़ गये हैं
फेंफडों का स्पाँज अकड़ गया है
चाचा की ज़ुबान लटकने लगी है
चाचा की आँखें बाहर आ रही हैं
चाची चाहती हैं चाचा जीयें पर चाचा मौत का बेइंतहा इंतज़ार कर रहे हैं
—–
चाचा की लाश स्ट्रेचर से गिर पड़ी
चाचा की लाश ठेले से लुढ़क गयी नीचे
चाचा की लाश इंसिनरेटर के मुहाने पर ही फिसल गयी…
अब चाचा को हाथ कौन लगाएगा?
अंदर कौन धकेलेगा चाचा को ?
“लाओ लंबी बांस-बल्ली लाओ”
चाचा मुहाने पर ही अड़ गये हैं चाची के मन जैसे
लपलपाती आग चाचा का बेइंतहा इंतज़ार कर रही है।
न्यूज़ में बताया कि चमगादड़ में सैंकड़ों वायरस रहते हैं
फिर बताया कि लोग चमगादड़ खा रहे हैं
कीड़े-मकोड़े खा रहे हैं
व्हेल, कॉकरोच, कुत्ता, बिल्ली, चूहा, सांप सब खा रहे हैं।
मुझे बहुत डर लगता है
न्यूज़ देखकर डर लगता है
न्यूज़ पर बताते हैं कि 97% लोग बच जाएंगे
बस 3% मरेंगे
थोड़ा अच्छा महसूस होता है
फिर सरकारी विज्ञापन आता है कि ‘जान है तो जहान है’
फिर से डर लगने लगता है
संजय कहता है यह काँस्पिरेसी है कोई महामारी नहीं
ज्ञानेश भी ऐसा ही मानता है
प्राची के अंकल भी यही कहते थे,
वे पिछले हफ्ते चल बसे
उनको पुरानी गंभीर बीमारी थी लेकिन गिनती उनकी ‘कोरोना टोटल’ में आती है।
संजय फिर कहता है काँस्पिरेसी है साला पैण्डेमिक है तो इतना सीक्रेट क्यूं है?
पैण्डेमिक है तो इतना बी ग्रेड क्यूं है?
लोग घर पर नहीं मर रहे रोड पर नहीं मर रहे खेत-खलिहान-बागीचे में नहीं मर रहे
बस अस्पताल में मर रहे हैं
रोज़ लाखों में नहीं मर रहे बस हजार मर रहे हैं
वह मानता है लोग इस रोग से नहीं मर रहे भूखे लाचार मर रहे हैं
मैं भी मानना चाहता हूँ जो संजय कहता है
पर मैं सौ सालों के डर की विरासत का वारिस हूँ
एक भूखा-नंगा पैदल युग मापता आदमी बीच सड़क पर कुत्ते की लाश खा रहा है
उसे देखकर मुझे सबसे ज्यादा डर लगा
क्या मेरे पुरखों ने भी अपने महाप्रवास में लाशों का महाभोज किया होगा?
तुम दूर रहो मुझसे
मैं तुम्हें चूमे बिना, छुए बिना प्रेम कर लूंगा
महसूस कर लूंगा होठों में होठों का मिलना
सांसों में सांसों का घुलना
झूठमूठ
जीवनसंगिनी हो तुम तुम्हारे बिना अधूरा हूँ मैं इसलिये दूर रहो मुझसे।
बेटे, घुमाऊंगा तुम्हें पीठ पर लहराऊंगा गोद में
नन्हीं उंगलियां थाम के दौड़ूंगा झूम के उछालूंगा और लपक लूंगा…
बस ठीक हो जाऊं एक बार
पापा सिक्सटी प्लस हो चुके हैं बीमार रहते हैं
मम्मी डायबिटिक हैं हार्ट पेशेंट हैं
बच्चा कितना छोटा है अभी
तुम भी जब-तब बीमार पड़ती रहती हो…
नज़दीक मत आओ अभी
बस दूर से देखो मुझे सब लोग
2 मीटर से कुछ नहीं होगा अब… गोला बड़ा करना होगा रोज़
मेंटेन अ सेफ सोशल डिस्टेंस
चार हाथ दूर
आठ हाथ दूर
कांच की दीवार के पार
ईंट की दीवार के पार…
मेरा शरीर उतना अकेला हो जितना मेरा मन गोला इतना बड़ा हो कम से कम
इतना बड़ा कि मेरी छींक तुम तक न पहुंचे
इतना बड़ा कि मेरी लरजती खांसी तुम तक न पहुंचे
इतना कि मेरी सांसों की रिक्तता का सन्नाटा तुम तक न पहुंचे
इतना कि जो हवा मुझे छू कर तुम तक जाना चाहे बीच में ही ढह जाये
इतना कि मान ले मेरा मन मैं नितांत अकेला हूँ इस दैत्याकार गोले में
किसी और के लिए खतरा नहीं
केवल खुद के लिये खतरा हूँ।
चौथा ही दिन है और मेरे पैरों की उँगलियाँ कहीं खो गयी हैं
मेरे और इस कमरे के बीच एक शून्य है मैं उसमें अपनी उँगलियाँ ढूँढ़ रहा हूँ
कमरा नहीं बस खिड़कियों का कोलाज है वैसे तो,
फिर भी कितना अंधेरा है!
इतने मोटे-मोटे पर्दे कि इनका कफ़न भी न बनाया जा सके
कोई एक पर्दा खोलना चाहता हूँ
एक खिड़की खोलना चाहता हूं
पर डब्ल्यूएचओ ने कल बताया कि कोरोनावायरस एयरबोर्न हो गया है
हवा का डर रोशनी के डर में बदलता जा रहा है न जाने क्यूं
खिड़की के कांच पर जमी बारिश की फुहार के पीछे कुछ फूल देखना चाहता हूँ
कुछ चिड़ियाँ
कुछ तितलियाँ
कुछ रंग
कुछ अनजाने अक्स
कुछ पहचाने लोग
जिनकी जानी-पहचानी मुस्कुराहट से थोड़ी इम्यूनिटी बढ़ने की सम्भावना हो।
इम्युनिटी बढ़ाने के लिए मैं केवल गर्म पानी पी रहा हूँ
डॉक्टर ने कहा था कुनकुना, पर मैं रिस्क नहीं लेना चाहता
मेरा भी परिवार है बीवी है बच्चे हैं…
मैं खूब काढ़ा पी रहा हूँ गोलियां खा रहा हूँ बेहद गर्म पानी पी रहा हूँ
इतना गर्म कि मैं कांच का बना होता तो चटक जाता
बर्फ का बना होता तो पिघल जाता
मांस का बना होता तो जल जाता…
पर मैं पत्थर का बना हूं
मैं सलामत रहूंगा
मुझे सलामत रहना होगा
आखिर मेरा भी परिवार है बीवी है बच्चे हैं।
मैंने अपने चारों तरफ़ सफेद चॉक स़े सोशल डिस्टेंसिंग का जो गोल घेरा खींचा था वह काला पड़ता जा रहा है।
मैं दस मिनट पहले तक सुरक्षित महसूस कर रहा था पर अब मुझे बदबू आ रही है
मृत्यु गोल-गोल नज़दीक घूमती हुई इतनी चारों तरफ़ है कि सूंघी जा सकती है।
2 मीटर खास दूरी भी नहीं होती
‘स्निफिंग कैट’ ऑस्कर की भी ज़रूरत नहीं, मैं खुद ही ऐसा कर सकता हूँ।
उम्र का कोई तकाज़ा नहीं अमीरी-गरीबी के लिहाज़ बिना बस मर रही है पूरी दुनिया।
बस मर रही है पूरी दुनिया मेरे पड़ोस से शुरू होकर जो बरास्ता बॉलीवुड पृथ्वी के दो चक्कर पैदल लगाने जितनी दूरी जनसंख्या में तय कर चुकी है।
एक ही आदमी तरह-तरह से मर रहा है
कभी केरोसिन से जला रहा है ख़ुद को सरेआम, कभी छत से कूद रहा है, ज़हर की पुड़िया निगल रहा है, पंखे से लटक रहा है, डूब रहा है नदी में नाले में गटर में, बाप की दुनाली से सर तरबूज सा फोड़े दे रहा है, लगातार मरता जा रहा है और मर-मर कर लौट रहा है औरत को वही एक सी थकी हुई ऊबी हुई बोरियत भरी धीमी मौत देने के लिए।
एक ही आदमी तरह-तरह से मर रहा है और तरह-तरह की औरतें एक ही तरह से मरती जा रही हैं
उनके बच्चे मुंह बाए खड़े हैं सोशल डिस्टेंसिंग के काले पड़ते घेरे में एक-दूसरे से भी दो मीटर दूर।
कल आप जिससे सब्ज़ी लेकर आये हो सकता है उसने रात सल्फास खा लिया हो
सुबह जो दूध देकर गया वह हो सकता है आज शाम छत से कूद जाए
अखबार भी दो दिनों से नहीं आ रहा
सामने वाले फ्लैट की डोरबेल चार दिनों से अनरिप्लाइड जा रही है
पांच दिन पहले डॉक्टर को किया व्हाट्सएप अभी तक ‘ब्ल्यू टिक’ नहीं हुआ
प्राची को हफ्ता भर पहले मैंने आई मिस यू लिखा था
हफ्ते भर से उसके मेसेंजर बॉक्स में लगातार थ्री रनिंग डॉट्स चल रहे हैं।
फिल्मलेखन से जुड़े अमित की कुछ और कविताएँ आप यहाँ पढ़ सकते हैं.
© ASHOK KUMAR PANDEY /// Idea, Work & Code : AMI TESH