स्वरा भाष्कर न केवल जानीमानी कलाकार हैं बल्कि एक शानदार सोशल एक्टिविस्ट भी हैं. अभी हाल में उनकी नई वेब सीरिज आई तो उसके लिए उत्साह स्वाभाविक था. लेकिन देखकर मैं निराश हुआ और ट्विटर पर एक कमेन्ट किया. स्वरा जी ने उसका जवाब दिया जिसमें उन्होंने इसे दमित सेक्सुआलिटी की अभिव्यक्ति बताया.
इस लेख में सुजाता ने उनके इस दावे की जांच पड़ताल स्त्रीवादी टूल्स से की है.
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औरत की सेक्शुएलिटी कोई भूत नहीं है
“A sex symbol becomes a thing. I hate being a thing.”
(एक सेक्स सिम्बल वस्तु बन जाती है. मुझे वस्तु बनने से नफ़रत है.)
― Marilyn Monroe
मनोविश्लेषणवाद के प्रवर्तक सिग्मण्ड फ्रॉयड ने मनुष्य के अवचेतन में दबी दमित इच्छाओं पर ख़ूब अध्ययन किया लेकिन उनके सारे चिंतन के केंद्र में पुरुष ही था। स्त्री के लिए उन्होंने कहा- मैं नहीं समझ पाया कि वह क्या चाहती है? स्त्री के बारे में पुराने सभी शास्त्र और मर्दवादी समाज यही समझ प्रसारित-प्रचारित करते हैं कि वह समझ से परे है। उसे तो ईश्वर भी नहीं जान पाया। मनुस्मृति से लेकर हमारे मध्यकालीन कवियों ने भी स्त्री महज़ कामिनी रूप में प्रतिष्ठित किया जो सबको लुभा सकती है। जिसके वार से कोई बच नहीं सकता।यह स्त्री यौनिकता की ऐसी स्टीरियोटाइप छवि है जो उसे अपने ख़ुद के यौनिक आनंद से वंचित रखकर मर्द के लिए मनोरंजन के सामान में तब्दील करती है।
प्राइम वीडियो पर एन नई वेबसीरीज़ रसभरी कल ही लॉन्च हुईजिसमें रसभरी का किरदार करने वाली स्वरा भास्कर अपने पिन किए ट्वीट में लिखती हैं – रसभरी के जादू से कोई नहीं बच पाएगा !
यह मैंने सीरीज़ देखने के बाद पढा। हालाँकि नाम और ट्रेलर मुझे एकदम टिपिकल मर्दवादी फंतासियों को साकार करता जान पड़ा फिर भी अनुभव सिन्हा और भी एकाध लोगों का ट्वीट देखा तो लगा चलिए देख लिया जाए, बिना देखे राय न बनाई जाए। स्वरा भास्कर के राजनीतिक-सामाजिक स्टैंड्स के लिए मैं उनकी सराहना करती रही हूँ। लेकिन सीरीज़ देखकर समझ आया फिल्मों की दुनिया तो बाज़ार ही है वहाँ एक्टिविज़्म नहीं चलता। जो बिक सकता है वही चलता है।
कोई दिक्कत भी नहीं है। सभी वेब चैनल्स पर भी ऐसे तमाम सीरीज़ और फिल्में भरी पड़े हैं जो पॉर्न के नज़दीक हैं। एकाध दृश्य इरॉटिक मिल भी ही जाते हैं। इरॉटिक और पॉर्न की बहस में फिलहाल नहीं जाना चाहती। तथाकथित अश्लील और अनैतिक चीज़ों से मेरी दिक्कत नहीं है। दिक्कत वहाँ है जब आप मर्दवादी फंतासियों को स्त्री की सेक्शुएलिटी की अभिव्यक्ति कहने लगो।
कहानी में एक स्कूल टीचर है शानू जिसे बदनामी के बाद पति के साथ हापुड़ शहर छोड़कर मेरठ आना पड़ा क्योंकि वह स्प्लिट पर्सनालिटी का शिकार है। वह अचानक ख़ुद को लखनऊ की एक तवायफ़ रसभरी समझने लगती है और घर पर आने वाले हर मर्द को बेडरूम तक ले जाती है।छोटे से शहर में इसका हल्ला हो जाता है और हर मर्द शानू को पाने के लिए अपने मौके का इंतज़ार करता है। शानू के स्कूल में ग्यारहवीं का एक लड़का नंद अपनी सेक्शुअल फंतासियों में शानू की कल्पनाएँ करने लगता है लेकिन असफलता से कुण्ठित होकर उसके पति को उसकी ‘करतूतों’से अवगत कराता है। वहीं पति कहता है वह शानू नहीं है बल्कि कोई रसभरी है जिसका भूत उसपर सवार हो जाता है।
सविता भाभी जैसे किरदार की कल्पना करना मर्दों की फंतासियों का सेलिब्रेशन है। मर्द जो हर सुंदर, दबंग औरत के बेडरूम में जाना चाहता है। यह स्त्री की फंतासी नहीं है कि उसकी जिंदगी तवायफ़ की ज़िंदगी हो और वह रसभरी बनकर हर मर्द को जो उसके द्वार तक आता है उसे अपने बेडरूम में ले आए। टीनेज लड़का नंद पूरी सीरीज़ में इस दुविधा में रहता है कि शानू और रसभरी का राज़ क्या है? शानू जिसे पति ख़ूब प्यार करता है उसकी सेक्शुएलिटी का रसभरी रूप क्या है जो उसकी समझ में नहीं आ रहा!
स्त्री यौनिकता को ऐसा असंतुष्ट और अबूझ खेल या भूत बनाना मर्दवाद का ही काम है जो मानता है कि स्त्री की यौनिकता को कोई सन्तुष्ट नहीं कर सकता और वह किसी के भी साथ सो सकती है।मनुस्मृति भी कहती है कि आज़ाद छोड़ दिया गया तो वह किसी के भी साथ सो जायेगी. स्थापित किया गया है कि वह एक insatiable cunt है।
अंत की ओर जब नंद समझने लगता है कि रसभरी की हरकतों का शानू मैडम से कोई लेना देना नहीं तभी उसे याद आ जाता है कि यह स्प्लिट पर्स्नालिटी नहीं बल्कि शानू रसभरी को जानती है और रसभरी शानू को। बात यहाँ खत्म नहीं होती। शानू शहर बदलती है तो अंत में फिर नए नाम और अवतार में वही सब करने के लिए नंद के ही कॉलेज में इंस्ट्रक्टर बनकर प्रकट होती है तो ऐसा लगता है डायरेक्टर कहना चाहता है ‘माया महाठगिनी हम जानी’ और त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं/देवो न जानामि कुतो मनुष्य: पर मुहर लगाकर सीरिज ख़त्म हो जाती है.
एक टीनेज लड़के की सेक्शुअल फैंटेसीज़ हमारे लिए कोई नई चीज़ नहीं है। हम लड़कों/मर्दों की फंतासियों को देखकर थक चुके हैं। लेकिन उसे चटखारे लेकर जिस तरह रसभरी में दिखाया गया है उससे पुराने सड़े हुए शास्त्रों का यही मत पुष्ट होता है कि स्त्री की यौनिकता कोई अबूझ है और ख़तरनाक चीज़ है। एक टीनेज जोड़े को एक एक करके चूमना और फिर उन्हें आपस में फ़िज़िकल होना सिखाना यह दृश्य जैसे सीधा पॉर्न फिल्मों से उठा लिया गया है। स्प्लिट पर्सनालिटी वाला तर्क भी किसी काम का नहीं है। न ही कहानी उसकी गहराई में जाकर अपने अस्ल मक्सद से हटना चाहती है। स्वरा भास्कर के ही ट्वीट के नीचे एक साइकॉल्जिस्ट लिखती हैं-
मैं यह सीरीज़ खत्म नहीं कर पाई। एक साइकॉलाजिस्ट होने के नाते कहना चाहती हूँ कि सीरीज़ ने यौन-विचलन और विभाजित व्यक्तित्व के बारे में और कंफ्यूज़न ही पैदा किया है।
मज़ेदार है कि इसे यौन विचलन मानने की जगह स्वरा भी अपने ट्वीट में लिखती हैं कि यह स्त्री की सेक्शुएलिटी पर आधारित है।
औरत की यौनिकता पर बात करने के लिए जेण्डर ग़ैर बराबरी को समझना और सम्वेदनशील होना पहली शर्त है। रसभरी को जिस तरह हरेक मर्द के साथ अपनी सेक्शुएलिटी को एक्स्प्लोर करते दिखाया गया है सोचिए क्या वाकई कोई तवायफ़ अपनी यौनिकता को एक्स्प्लोर करने के लिए किसे कोठे पर होती है? जिसका मक्सद पैसा नहीं सिर्फ सेक्स है? वह भी अपनी संतुष्टि की बात नहीं करती एक भी जगह बल्कि उसके सम्पर्क में आए मर्द ही अपने गज़ब के अनुभव को बखानते नज़र आते हैं। मुझे दबंफिल्म का वह गाना याद आता है- तंदूरी मुर्गी हूँ यार… तंदूरी मुर्गी को मज़ा आता है भुनकर या मज़ा खाने वाले को आता है? एक ट्वीट में स्वरा लिखती हैं कि दबाई, छुपाई जाने वाली औरत की सेक्शुएलिटी के बारे में है यह सीरीज़। लेकिन 8 एपिसोड्स में स्वरा के पास औरत की सेक्शुएलिटी पर कहने के लिए एक भी डायलॉग नहीं।
कहानी न कोई स्टीरियोटाइप तोड़ती है न कोई नया जोखिम मोल लेती है औरत की सेक्शुलिटी यानी यौनानंद पर उसके अपने अधिकार की बात पर। वह नाम बदलती जाती है और शहर और वह भी एक भले (भोले) पति की सहायता से। रसभरी भूत बनी रहती है। कोई बहस नहीं। कोई प्रस्थापना नहीं।
अगर कोई सीरीज़ आठ एपिसोड्स में एक बार भी यह बात न कर पाए कि समाज में वे कौन कौन से कारक होते हैं जो स्त्री की सेक्शुएलिटी को दमित बनाते हैं, अगर वह एक बार भी यह न समझा पाए कि कैसे धर्म, जाति, वर्ग, क्लास स्त्री की सेक्शुएलिटी की अभिव्यक्ति और यौन आनंद को प्रभावित करते हैं तो उसे यह दावा नहीं करना चाहिए कि वह स्त्री के पक्ष में है। स्त्री-यौनिकता एक मर्दवादी समाज में एक गभीर मसला है जिसका मखौल बनाना हमें मर्दों के ही प्लेग्राउंड तक ले जाता है। वे जो फंतासियाँ पालते हैं उन्हें ही हवा देते हुए हम अपने पाले में गोल करते हैं। अश्लीलता परोसने के लिए स्त्रीवाद का सहारा लेना एक ऐसा फर्जी सेक्सी स्त्रीवाद खड़ा करता है जो मर्दवाद के ही दायरे की चीज़ बनाता है उसे।
समाज की समझ और स्त्री की सेक्शुएलिटी के विषय से डील करने की तमीज़ मुझे ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा’में दिखाई दी। अलग-अलग सामाजिकताओं से आने वाली अलग उम्र की औरतों की सेक्शुलिटी के बारे में बेहद महीन स्तर पर बात करती हुई। उसके दमन पर खुलकर बात करती हुई। अपना पक्ष सामने रखती हुई। पक्ष जो उसे अबूझ नहीं बनाता।
एक औरत को क्या चाहिए? वही जो एक मनुष्य को चाहिए। उसकी यौनिकता क्या है विज्ञान ने सब खोलकर रख दिया है। वह पहेली नहीं है।
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दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षिका सुजाता हिन्दी की जानीमानी फेमिनिस्ट कवि और लेखक हैं.
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